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भारतीय राजव्यवस्था 

उत्तराखंड समान नागरिक संहिता (UCC) विधेयक: मुख्य प्रावधान, महत्त्व और चिंताएँ

Last updated on June 26th, 2024 Posted on February 17, 2024 by  3310
उत्तराखंड समान नागरिक संहिता (UCC)

विगत वर्षों में केंद्र सरकार के साथ-साथ कुछ राज्यों ने भी समान नागरिक संहिता (UCC) के कार्यान्वयन के लिए कुछ प्रयास किये हैं। हाल ही में उत्तराखंड समान नागरिक संहिता विधेयक 2024 का पारित होना ऐसे प्रयासों की सूची में शामिल हो गया है। जैसा कि विधेयक पर देश भर में चर्चा और बहस जारी है, NEXT IAS का यह लेख उत्तराखंड समान नागरिक संहिता विधेयक 2024 के प्रमुख प्रावधानों, इसकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि, लाभों, चुनौतियों और इससे संबंधित अवधारणाओं को समझाने का प्रयास करता है।

उत्तराखंड समान नागरिक संहिता (UCC) विधेयक 2024 के बारे में

हाल ही में, उत्तराखंड विधानसभा ने उत्तराखंड समान नागरिक संहिता (UCC) विधेयक 2024 पारित किया है, जो स्वतंत्र भारत में समान नागरिक संहिता लागू करने वाला पहला राज्य बन गया है। यह पारित विधेयक उत्तराखंड के सभी निवासियों (अनुसूचित जनजातियों को छोड़कर) के लिए विवाह, तलाक, संपत्ति की विरासत और लिव-इन रिलेशनशिप पर एक समान नियमों एवं कानून का प्रस्ताव करता है,चाहे उनका धर्म या आस्था कुछ भी हो।

उत्तराखंड का यह कानून संविधान के अनुच्छेद 44 (राज्य नीति के निर्देशक तत्त्व) से संबंधित है, जो राज्य को पूरे भारत के क्षेत्र में नागरिकों के लिए एक समान नागरिक संहिता सुनिश्चित करने का निर्देश देता है।

एक समान नागरिक संहिता क्या है?
एक समान नागरिक संहिता (UCC) विवाह, उत्तराधिकार, तलाक, गोद लेने आदि जैसे व्यक्तिगत मामलों के लिए एक समान कानून को संदर्भित करता है जो सभी धार्मिक समुदायों पर लागू होता है।
– इस संहिता का उद्देश्य विभिन्न व्यक्तिगत कानूनों को प्रतिस्थापित करना है जो वर्तमान में विभिन्न धार्मिक समुदायों के अंतर्गत व्यक्तिगत मामलों को नियंत्रित करते हैं।
– इस संहिता के द्वारा विभिन्न धर्मों और समुदायों पर आधारित असमान कानूनी प्रणालियों को समाप्त करके सामाजिक सद्भाव, लैंगिक समानता और धर्मनिरपेक्षता को बढ़ावा देना है।
– यह संहिता न केवल समुदायों के मध्य, बल्कि एक समुदाय के भीतर भी कानूनों की एकरूपता सुनिश्चित करने का प्रयास करती है।

समान नागरिक संहिता (UCC) पर विस्तृत लेख पढ़ें

उत्तराखंड यूसीसी विधेयक 2024 का विकास

उत्तराखंड सरकार लंबे समय से राज्य के लिए समान नागरिक संहिता पर विचार कर रही थी। अंततः, उत्तराखंड सरकार ने समान नागरिक संहिता विधेयक के प्रारूप को तैयार करने के लिए सुप्रीम कोर्ट की पूर्व न्यायाधीश न्यायमूर्ति रंजना प्रकाश देसाई के नेतृत्व में पांच सदस्यीय विशेषज्ञ समिति के गठन की घोषणा की। समिति के अन्य सदस्य थे:

  • प्रमोद कोहली (माननीय न्यायाधीश)
  • श्री श्री शत्रुघ्न सिंह (आईएएस)
  • श्री मनु गौड़ (सामाजिक कार्यकर्ता)
  • प्रो. सुरेखा डंगवाल (कुलपति, दून विश्वविद्यालय)
  • श्री अजय मिश्रा (सचिव, आर.सी., उत्तराखंड)।

कुछ विचार-विमर्श और संशोधनों के पश्चात् प्रारूप को अंतिम रूप दिया गया और अंततः हाल ही में उत्तराखंड विधानसभा द्वारा पारित किया गया।

उत्तराखंड समान नागरिक संहिता विधेयक 2024 के प्रमुख प्रावधान

उत्तराखंड समान नागरिक संहिता विधेयक, 2024 की प्रमुख विशेषताएं इस प्रकार हैं:

प्रयोज्यता (Applicability)

  • यह राज्य के जनजातीय समुदाय को छोड़कर उत्तराखंड के सभी निवासियों पर लागू होता है।
    • विधेयक की धारा 2 में प्रावधान किया गया है – “इस संहिता में निहित कोई भी बात भारत के संविधान के अनुच्छेद 142 के साथ पढ़े गए अनुच्छेद 366 के खंड (25) के अर्थ के अंतर्गत किसी भी अनुसूचित जनजाति के सदस्यों और उन व्यक्तियों एवं व्यक्तियों के समूह पर लागू नहीं होगी जिनके प्रथागत अधिकार भारत के संविधान के भाग XXI के तहत संरक्षित हैं।

विवाह

  • विधेयक विवाह के 60 दिनों के भीतर अनिवार्य पंजीकरण का आदेश देता है। यह प्रावधान उत्तराखंड के सभी निवासियों पर लागू होता है, चाहे विवाह राज्य के भीतर या बाहर हो।
    • हालाँकि विवाह का गैर-पंजीकरण इसे अमान्य नहीं करेगा, संबंधित पक्षों को ₹10,000 का जुर्माना भरना पड़ सकता है।
    • जानबूझकर गलत जानकारी देने वालों को ₹25,000 का जुर्माना और तीन महीने की कारावास की सजा हो सकती है।
    • अदालत के आदेश के बिना कोई भी विवाह विघटित / भंग नहीं किया जा सकता अन्यथा 3 वर्ष तक की कैद हो सकती है।

लिव-इन रिलेशनशिप

  • राज्य के अधिकार क्षेत्र के भीतर किसी भी लिव-इन रिलेशनशिप को अनिवार्य रूप से पंजीकृत करना होगा, भले ही संबंधित पुरुष और महिला उत्तराखंड के निवासी हों या नहीं।
    • यदि लिव-इन रिलेशनशिप में रहने वाले युग्म/ जोड़ें अपना बयान नहीं देते हैं, तो उन्हें एक नोटिस दिया जाएगा जिसके बाद उनके विरुद्ध आपराधिक कार्यवाही शुरू की जा सकती है।
    • भागीदार केवल इसी आशय का एक औपचारिक बयान प्रस्तुत करके संबंध समाप्त कर सकते हैं।
    • अपने लिव-इन पार्टनर द्वारा छोड़ी गई महिलाएँ सक्षम न्यायालय के माध्यम से भरण-पोषण का दावा कर सकती हैं।
    • ऐसे संबंधों से पैदा हुए बच्चों को वैध माना जाएगा।

क्वीर रिलेशनशिप (Queer Relationship)

  • इस विधेयक में LGBTQIA+ समुदाय के सदस्यों को अपनी परिधि से बाहर रखा गया है और यह केवल विषमलैंगिक संबंधों पर लागू होता है।
    • हालाँकि इस विधेयक में “पार्टनर” जैसे लिंग-तटस्थ शब्दों का प्रयोग किया गया है, यह लिव-इन रिलेशनशिप को विशेष रूप से “एक पुरुष और एक महिला के बीच संबंध” के रूप में परिभाषित करता है जो वैवाहिक रिश्ते के समान एक घर / मकान में साथ रहते हैं।

बहुविवाह का निषेध

  • विधेयक की धारा 4 में कहा गया है कि नये विवाह के किसी भी पक्षकार के विवाह के समय कोई अन्य जीवित जीवनसाथी नहीं होना चाहिए। इस प्रकार, यह द्विविवाह या बहुविवाह को प्रतिबंधित करता है।

बच्चों की कानूनी मान्यता

  • इस विधेयक ने “अवैध बच्चों” की अवधारणा को समाप्त कर दिया है। नया कानून शून्य विवाहों के साथ-साथ लिव-इन संबंधों से पैदा हुए बच्चों को कानूनी मान्यता प्रदान करता है।

विरासत

  • विधेयक बेटों और बेटियों को समान संपत्ति अधिकार सुनिश्चित करता है, जिसमें अवैध बच्चे, गोद लिए हुए बच्चे और सरोगेसी या सहायक प्रजनन तकनीक के माध्यम से जन्मे बच्चे शामिल हैं।
    • यह 1956 के हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम के तहत पैतृक संपत्ति को नियंत्रित करने वाली सहभागिता प्रणाली को समाप्त कर देता है।
    • निरस्त उत्तराधिकार के मामलों में, जहाँ कोई पंजीकृत वसीयत नहीं है, यह विधेयक मौजूदा व्यक्तिगत कानूनों से अलग हटकर, जीवनसाथी, बच्चों और माता-पिता के लिए समान संपत्ति अधिकारों की गारंटी देता है।

कुछ विवाह प्रथाओं का अपराधीकरण

  • यह विधेयक मुस्लिम समुदाय में प्रचलित कुछ विवाह प्रथाओं जैसे निकाह हलाला और तीन तलाक को उनके नाम लिए बिना प्रतिबंधित करता है।
  • उदाहरण के लिए, विधेयक की धारा 30(1) के अनुसार, अब व्यक्तियों को बिना किसी पूर्व शर्त के अपने तलाकशुदा जीवनसाथी से पुनर्विवाह करने का अधिकार है, जिससे निकाह हलाला की प्रथा समाप्त हो जाती है।

तलाक की कार्यवाही

  • पुरुषों और महिलाओं को तलाक के संबंध में समान अधिकार दिये गए हैं।
    • तलाक के आधारों में व्यभिचार, क्रूरता, परित्याग, दूसरे धर्म में परिवर्तन, मानसिक विकार आदि शामिल हैं।
    • यह “विवाह का अपूरणीय विघटन (Irretrievable Breakdown of Marriage)” को मान्यता नहीं देता है, जो उस स्थिति को संदर्भित करता है जहां पति-पत्नी के बीच संबंध इस सीमा तक बिगड़ गया है कि इसे ठीक नहीं किया जा सकता है या बहाल नहीं किया जा सकता है, जिससे विवाह को जारी रखने की प्रासंगिकता समाप्त हो जाती है।
    • इसके अतिरिक्त, “शून्य” विवाह को गैर-पूर्ति, विवाह की शर्तों का उल्लंघन आदि के आधार पर रद्द किया जा सकता है।
    • विधेयक के अंतर्गत महिलाओं को केवल दो परिस्थितियों में तलाक लेने के लिए विशेष अधिकार हैं
      • यदि पति को बलात्कार या किसी भी प्रकार के अप्राकृतिक यौन अपराध का दोषी पाया गया है,
      • यदि पति की एक से अधिक पत्नियाँ हैं।
    • तलाक के मामले में, 5 वर्ष के आयु तक के बच्चे की कस्टडी मां के पास रहती है। हालाँकि, 1890 का अभिभावक और वार्ड अधिनियम अदालत द्वारा नियुक्त संरक्षकता को नियंत्रित करना जारी रखेगा।

उत्तराखंड समान नागरिक संहिता विधेयक, 2024 के प्रभाव

उत्तराखंड समान नागरिक संहिता विधेयक, 2024 को लेकर इसके संभावित प्रभावों को लेकर मिश्रित प्रतिक्रियाएँ देखने को मिली हैं। इसके संभावित प्रभावों को निम्न दो शीर्षकों के अंतर्गत देखा जा सकता है:

संभावित सकारात्मक प्रभाव

  • लैंगिक समानता: यह विधेयक विभिन्न धर्मों के व्यक्तिगत कानूनों में मौजूद भेदभावपूर्ण प्रथाओं, विशेष रूप से विरासत और भरण-पोषण से संबंधित प्रथाओं को समाप्त करके लैंगिक समानता को बढ़ावा दे सकता है। यह बहुविवाह जैसे भेदभावपूर्ण रीतियों को भी समाप्त कर सकता है।
  • कानूनी प्रणाली का सरलीकरण: विभिन्न समुदायों में व्यक्तिगत कानूनों को सुव्यवस्थित करने से कानूनी प्रणाली को सरल बनाया जा सकता है, जिससे ये कानून जनता के लिए अधिक आसान और समझने योग्य हो जाएँगे।
  • राष्ट्रीय एकीकरण: यह धार्मिक व्यक्तिगत कानूनों पर आधारित भेदभावों को दूर करके राष्ट्रीय एकता की भावना को बढ़ावा दे सकते है।

संभावित नकारात्मक प्रभाव

  • अल्पसंख्यक समुदायों पर प्रभाव: आलोचकों को तर्क है कि यह विधेयक अल्पसंख्यक समुदायों को असमान रूप से प्रभावित कर सकता है, जिनकी पारंपरिक प्रथाओं और सांस्कृतिक पहचानों की उपेक्षा की जा सकती है। इससे उनके मध्य पारंपरिक रीति-रिवाजों और धार्मिक स्वतंत्रता के संरक्षण को लेकर चिंताएँ बढ़ सकती हैं।
  • संवैधानिक चुनौतियाँ: कुछ कानूनी विशेषज्ञों का तर्क है कि यह विधेयक कुछ संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन कर सकता है, विशेषकर धार्मिक स्वतंत्रता और कानून के समक्ष समानता से संबंधित अधिकार। इससे कानूनी चुनौतियों और कार्यान्वयन में देरी हो सकती है।
  • सामाजिक तनाव: विधेयक को लागू करने से संभावित रूप से अलग-अलग समुदायों के बीच सामाजिक तनाव बढ़ सकता है, विशेषकर अगर अल्पसंख्यक अधिकारों के बारे में चिंताओं को पर्याप्त रूप से संबोधित नहीं किया गया है।

उत्तराखंड समान नागरिक संहिता विधेयक से संबंधित चिंताएँ

समाज के कुछ वर्गों ने उत्तराखंड समान नागरिक संहिता (UCC) विधेयक के बारे में निम्नलिखित चिंताएँ व्यक्त की हैं:

  • निजता के अधिकार का उल्लंघन: लिव-इन रिलेशनशिप का अनिवार्य पंजीकरण के प्रावधान निजता के अधिकार और अनुच्छेद 21 के तहत गारंटीकृत गरिमा से जीने के अधिकार का उल्लंघन कर सकते हैं।
  • LGBTQIA+ अधिकार: UCC से समलैंगिक संबंधों को बाहर करने से LGBTQIA+ अधिकारों और कानून के तहत समानता को लेकर चिंताएँ उठना स्वभाविक हैं। लिव-इन रिलेशनशिप को विशेष रूप से एक पुरुष और एक महिला के बीच संबंध के रूप में परिभाषित करके, UCC LGBTQIA+ व्यक्तियों और संबंधों के प्रति भेदभाव को बढ़ावा मिल सकता है।
  • गैर-समावेशी: जनजातीय समुदायों को UCC से छूट देने से समावेशिता और कानून के तहत समान व्यवहार को लेकर सवाल उठते हैं। जबकि कुछ का तर्क है कि आदिवासी समुदायों को अपनी पारंपरिक प्रथाओं को बनाए रखने की अनुमति दी जानी चाहिए, अन्य लोग एक ही समुदाय के भीतर विभिन्न समूहों पर अलग-अलग कानूनी मानकों को लागू करने की निष्पक्षता पर सवाल उठाते हैं।
  • निगरानी के मुद्दे: निगरानी से संबंधित विधेयक के प्रावधानों का संभावित रूप से विभिन्न धर्मों या जातियों के जोड़ों/ युग्मों को लक्षित करने और डराने-धमकाने के लिए उपयोग किया जा सकता है।
  • अल्पसंख्यक और हाशिए पर मौजूद महिलाएँ: विधेयक के कुछ प्रावधान अल्पसंख्यक समुदायों की पारंपरिक प्रथाओं और सांस्कृतिक पहचानों पर इसके संभावित प्रभाव के बारे में चिंताएँ पैदा करते हैं तथा हाशिए पर मौजूद समुदायों की उन महिलाओं को भी प्रभावित करते हैं जो प्रथागत समर्थन प्रणालियों पर निर्भर करती हैं।
  • कानूनी चुनौतियाँ: कुछ आलोचकों का तर्क है कि यह विधेयक कुछ संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन कर सकता है, विशेषकर धार्मिक स्वतंत्रता और समानता से संबंधित अधिकारों का। इन चिंताओं से भविष्य में कानूनी चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है।

आगे की राह

  • संवाद और परामर्श: धार्मिक समुदायों, कानूनी विशेषज्ञों और सिविल सोसाइटी संगठनों सहित सभी हितधारकों के साथ परामर्श लेने से विधेयक के बारे में चिंताओं को समझने और हल करने में मदद मिल सकती है।
  • सार्वजनिक शिक्षा: लोगों को विधेयक के संभावित लाभों के बारे में सूचित करने के लिए सार्वजनिक शिक्षा अभियान आदि के माध्यम से आम सहमति बनाने और इसके कार्यान्वयन के लिए समर्थन जुटाने में मदद मिल सकती है।
  • समावेशिता: उत्तराखंड में समान नागरिक संहिता की सफलता इस बात पर निर्भर करेगी कि वह व्यक्तिगत कानूनों में समानता को बढ़ावा देने और अपने बहुसंस्कृति समाज की विविध सांस्कृतिक और धार्मिक पहचानों का सम्मान करने के बीच संतुलन बनाने की क्षमता रखती है।
  • निगरानी और मूल्यांकन: जब समान नागरिक संहिता लागू होती है, तो इसके कार्यान्वयन की निगरानी और समाज पर इसके प्रभाव का मूल्यांकन करने के लिए एक तंत्र स्थापित किया जाना चाहिए। इससे आवश्यक समायोजन करने और इसके कार्यान्वयन की प्रक्रिया को सुगम बनाने में मदद मिलेगी।
  • राजनीतिक इच्छाशक्ति: राजनीतिक नेताओं को नेतृत्व और दृढ़ इच्छाशक्ति के माध्यम से विधेयक के कार्यान्वयन से जुड़ी जटिलताओं और चुनौतियों को हल करने का प्रयास करना चाहिए ।

उत्तराखंड समान नागरिक संहिता विधेयक का पारित होना, भारत में समान नागरिक संहिता के लागू होने लिए लंबे समय से हो रही माँग को पूरा करने की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम माना जा सकता है। कुछ कमियों और कार्यान्वयन संबंधी चुनौतियों के बावजूद, यह विधेयक सामाजिक न्याय, समानता और धर्मनिरपेक्षता की दिशा में राज्य और पूरे भारत की यात्रा में योगदान दे सकता है। इसके कार्यान्वयन के मार्ग में आने वाली चुनौतियों को सावधानीपूर्वक हल करना चाहिए।

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