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भारतीय अर्थव्यवस्था 

भारत में बैंकों का राष्ट्रीयकरण

Posted on October 30, 2024 by  0
भारत में बैंकों का राष्ट्रीयकरण

भारत में बैंकों का राष्ट्रीयकरण एक परिवर्तनकारी घटना थी जिसने भारतीय बैंकिंग परिदृश्य को पुनः परिभाषित किया। हालाँकि इससे अनेक लाभ हुए, लेकिन इसे कुछ आलोचनाओं का भी सामना करना पड़ा। इस लेख का उद्देश्य भारत में बैंकों के राष्ट्रीयकरण की अवधारणा, इसके इतिहास, उद्देश्य, प्रभाव, आलोचनाओं और अन्य संबंधित पहलुओं का विस्तार से अध्ययन करना है।

  • बैंकों का राष्ट्रीयकरण का अर्थ है निजी बैंकों के नियंत्रण और स्वामित्व को सरकार द्वारा अपने हाथों में स्थानांतरित करना।
  • इसका मतलब है कि सरकार उस पूर्ववर्ती निजी बैंक की बहुसंख्यक शेयरधारक बन जाती है, और बैंक एक सार्वजनिक क्षेत्र की संस्था के रूप में कार्य करता है।
  • सरकार ने पहले प्रायोगिक आधार पर आंशिक राष्ट्रीयकरण किया।
    • इस प्रयोग के सफल होने के बाद, सरकार ने बैंकों के पूर्ण राष्ट्रीयकरण का निर्णय लिया।
  • इसके अनुसार, बैंकिंग राष्ट्रीयकरण अधिनियम, 1969 पारित किया गया, जिसके तहत निम्नलिखित दो चरणों में कुल 20 निजी बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया

भारत में बैंकों के राष्ट्रीयकरण के पहले चरण में, जुलाई 1969 में ₹50 करोड़ से अधिक जमा राशि वाले 14 बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया।

भारत में बैंकों के राष्ट्रीयकरण के दूसरे चरण में, अप्रैल 1980 में ₹200 करोड़ से अधिक जमा राशि वाले 6 बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया।

भारत में राष्ट्रीयकृत होने वाला पहला बैंक

एसबीआई अधिनियम, 1955 के अधिनियमन के साथ, भारत सरकार ने तीन इंपीरियल बैंकों (मुख्य रूप से अतीत में तीन प्रेसिडेंसियों में अपनी 466 शाखाओं के साथ काम कर रहे थे) का आंशिक रूप से राष्ट्रीयकरण किया और उन्हें ‘स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया’ नाम दिया। यह भारत का पहला सार्वजनिक क्षेत्र का बैंक बना।

भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) का राष्ट्रीयकरण, 1949 में किया जा चुका था, जिसका अर्थ था कि एक केंद्रीय बैंकिंग प्रणाली स्थापित हो गई थी। इसके बाद, भारत सरकार ने कुछ चुनिंदा निजी बैंकों का राष्ट्रीयकरण करने का निर्णय निम्नलिखित मुख्य कारणों के चलते लिया:

  • स्वतंत्रता के बाद, भारत सरकार (GOI) ने राष्ट्र के लिए योजनाबद्ध आर्थिक विकास को अपनाया। भारत में बैंकों का राष्ट्रीयकरण पाँच वर्षीय योजनाओं के तहत अपनाई गई समाजवादी नीतियों के लिए आवश्यक था।
  • 1962 में चीन और 1965 में पाकिस्तान के साथ युद्ध जैसी घटनाओं के कारण कई आर्थिक और राजनीतिक झटकों ने सार्वजनिक वित्त पर भारी दबाव डाला।
  • लगातार दो वर्षों तक सूखे के कारण न केवल खाद्यान्न की कमी हुई, बल्कि अमेरिकी खाद्य शिपमेंट (पीएल 480 कार्यक्रम) पर निर्भरता के कारण राष्ट्रीय सुरक्षा से भी समझौता करना पड़ा।
  • इसके पश्चात, तीन वर्षीय योजना अवकाश ने सार्वजनिक निवेश को प्रभावित किया परिणामश्वरूप समग्र मांग प्रभावित हुई। 1960-70 का दशक भारत के लिए ‘खोया हुआ दशक’ था, क्योंकि आर्थिक वृद्धि जनसंख्या वृद्धि से बमुश्किल आगे निकल पाई साथ ही औसत आय भी स्थिर रही।
  • वाणिज्यिक बैंकों द्वारा वितरित ऋण में उद्योग का हिस्सा 1951 और 1968 के बीच लगभग दोगुना 34% से 68% तक हो गया, जबकि कृषि को कुल ऋण का 2% से भी कम प्राप्त हुआ।
  • भारत में हरित क्रांति की शुरुआत के साथ ही कृषि को पूंजी निवेश की आवश्यकता थी, जिसका उद्देश्य देश को खाद्य सुरक्षा में आत्मनिर्भर बनाना था।
  • चूंकि बैंकों का स्वामित्व और प्रबंधन निजी क्षेत्र के पास था, इसलिए बैंकिंग सेवाओं की पहुँच सीमित थी अर्थात आम जनता की बैंकिंग सेवा तक पहुँच बहुत कम थी;
  • सरकार को संसाधनों का ऐसा दिशा-निर्देशन करने की आवश्यकता थी जिससे व्यापक जनहित को लाभ मिल सके, और बैंकों का राष्ट्रीयकरण इसका एक उपाय बना।
  • अर्थव्यवस्था के योजनाबद्ध विकास के लिए आवश्यक था कि सरकार अर्थव्यवस्था द्वारा उत्पन्न पूंजी पर कुछ नियंत्रण बनाए रखे।
  • भारत में बैंकों के राष्ट्रीयकरण की आवश्यकता वाले अन्य कारण :
    • सामाजिक कल्याण।
    • निजी एकाधिकार को नियंत्रित करना।
    • ग्रामीण क्षेत्रों में बैंकिंग का विस्तार (वित्तीय समावेशन)।
    • क्षेत्रीय असंतुलन और शहरी-ग्रामीण विभाजन को दूर करना।
  • बाधाओं का निवारण : भारत में बैंकों के राष्ट्रीयकरण का मतलब था कि बैंकरों और ग्राहकों के बीच कोई सामाजिक, आर्थिक, या राजनीतिक बाधाएं न रहें । इससे ग्राहक के आधार में बड़े पैमाने पर मात्रात्मक विस्तार हुआ साथ ही सेवाओं को भी बेहतर बनाने में मदद मिली।
  • बैंकों की पहुंच का विस्तार : बैंकों ने ग्रामीण क्षेत्रों में विस्तार करना शुरू किया। इसके साथ ही, अर्थव्यवस्था का विस्तार हुआ और देश के दूर-दराज के इलाकों में भी रोजगार के नए अवसर उत्पन्न हुए।
  • बैंकिंग शाखाओं का विस्तार : बैंकों के राष्ट्रीयकरण के पिछले 28 वर्षों के दौरान, सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की शाखाएँ 7,219 से 800 प्रतिशत बढ़कर 57,000 हो गईं, जबकि जमा और अग्रिम में क्रमशः 11,000 प्रतिशत और 9,000 प्रतिशत की भारी वृद्धि हुई।
  • बैंक ऋण देने का पुनर्निर्देशन: अर्थव्यवस्था के प्राथमिकता वाले क्षेत्रों के विकास की प्रक्रिया में तेज़ी आई, जिन पर अब तक वाणिज्यिक बैंकों का पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया था।
  • भारतीय बैंकिंग प्रणाली की विश्वसनीयता में वृद्धि : आसान पहुंच और बढ़ती बैंकिंग आदतों ने भारतीय बैंकिंग प्रणाली की विश्वसनीयता को बढ़ावा दिया।
  • प्राथमिकता क्षेत्र ऋण (PSL) : बैंकों के राष्ट्रीयकरण के बाद शुरू की गई प्रायोरिटी सेक्टर लेंडिंग (PSL) योजना का उधेश्य था कि कृषि और संबंधित क्षेत्र राष्ट्रीय आय में सबसे बड़े योगदानकर्ताओं के रूप में उभरें ।
  • बचत का संग्रहण : बैंकों के राष्ट्रीयकरण ने लोगों की बचत को एकत्र करने और उसे उत्पादक उद्देश्यों के लिए उपयोग करने में मदद की।
  • अपर्याप्त बैंकिंग सुविधाएँ : हालाँकि देश भर में बैंकों की पहुँच बढ़ी है, लेकिन देश के कई हिस्से अभी भी बैंकिंग से वंचित हैं।
    • जिसका मुख्या कारण प्रतिस्पर्धा की कमी और निम्न स्तर की कार्यक्षमता है।
  • कार्यक्षमता और लाभ : बैंकों के राष्ट्रीयकरण के बाद उन्हें सरकारी नियंत्रण में लाया गया, जिसका अर्थ था राजनीतिक दबाव, जिसने पेशेवर कार्यशैली में बाधा उत्पन्न की।
    • इसके परिणामस्वरूप बैंकों की दक्षता और लाभप्रदता में कमी आई।
  • राजनीतिक और प्रशासनिक हस्तक्षेप : राजनीतिक हस्तक्षेप और लोकलुभावन नीतियों के कारण कई सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को बुरी तरह नुकसान उठाना पड़ा।
    • यह लोन मेलों का आयोजन करने में देखा गया, जिसके परिणामस्वरूप बड़े पैमाने पर गैर-निष्पादित संपत्तियाँ (NPA) पैदा हुईं। अभी भी सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में एक बड़ा हिस्सा NPA के रूप में मौजूद है।
  • व्यय में वृद्धि : शाखा नेटवर्क में भारी विस्तार, बड़ता हुए कर्मचारियों का प्रशासनिक व्यय, ट्रेड यूनियन संघर्ष आदि के कारण बैंकों का व्यय बढ़ जाता है।
  • जटिल ब्याज दर संरचना : अलग-अलग ऋण अवधियों के साथ अलग-अलग ब्याज दरों के परिणामस्वरूप गैर-निष्पादित परिसंपत्तियाँ (एनपीए) बढ़ जाती हैं।

भारत में बैंकों का राष्ट्रीयकरण एक ऐतिहासिक घटना थी जिसने भारतीय बैंकिंग प्रणाली को नया आकार दिया। इसने वित्तीय समावेशन को बढ़ावा देने के साथ साथ प्राथमिक क्षेत्रों की ओर ऋण निर्देशित करने की दिशा में भी महत्वपूर्ण कदम उठाये । हालांकि, इसके साथ-साथ यह भारतीय बैंकिंग प्रणाली के लिए कुछ समस्याएं और चुनौतियाँ भी लेकर आया। इसके नकारात्मक प्रभावों को कम करने और भारतीय बैंकिंग प्रणाली को अधिक कुशल बनाने के लिए आवश्यक बैंकिंग सुधारों को लागू किया जाना चाहिए।

भारत में राष्ट्रीयकृत बैंकों के नाम निम्नलिखित हैं

  1. बैंक ऑफ इंडिया
  2. बैंक ऑफ महाराष्ट्र
  3. सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया
  4. इंडियन ओवरसीज बैंक
  5. पंजाब एंड सिंध बैंक
  6. बैंक ऑफ बड़ौदा
  7. केनरा बैंक
  8. इंडियन बैंक
  9. स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया
  10. पंजाब नेशनल बैंक
  11. यूको बैंक
  12. यूनियन बैंक ऑफ इंडिया
– यूनाइटेड बैंक ऑफ इंडिया और ओरिएंटल बैंक ऑफ कॉमर्स का पंजाब नेशनल बैंक में विलय कर दिया गया है।
– देना बैंक और विजया बैंक का बैंक ऑफ बड़ौदा में विलय कर दिया गया है।

भारतीय रिजर्व बैंक का राष्ट्रीयकरण कब किया गया था?

भारतीय रिजर्व बैंक (RBI) का राष्ट्रीयकरण वर्ष 1949 में किया गया था, जिससे केंद्रीय बैंकिंग व्यवस्था स्थापित हुई।

भारत में अब कितने बैंक राष्ट्रीयकृत हैं?

अभी भारत में राष्ट्रीयकृत बैंकों की कुल संख्या 12 है।

वाणिज्यिक बैंक का पहला राष्ट्रीयकरण कब हुआ था?

भारत में वाणिज्यिक बैंकों का पहला राष्ट्रीयकरण 19 जुलाई, 1969 को हुआ था। जब 14 प्रमुख वाणिज्यिक बैंकों को सरकारी स्वामित्व में लाया गया था।

सामान्य अध्ययन-3
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