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भारतीय राजव्यवस्था 

समान नागरिक संहिता (UCC): अर्थ, संवैधानिक प्रावधान, बहस, निर्णय और संबंधित तथ्य

Last updated on February 17th, 2024 Posted on November 3, 2023 by  11640
समान नागरिक संहिता (UCC)

समानता, न्याय और धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांतों पर आधारित समान नागरिक संहिता (UCC) भारत में लंबे समय से एक बहस का मुद्दा रहा है। उत्तराखंड में समान नागरिक संहिता (UCC) विधेयक के पारित होने जैसे हालिया घटनाक्रम ने पुन: UCC के मुद्दे को प्रकाश में ला दिया है। NEXT IAS के इस लेख का उद्देश्य यूसीसी का अर्थ, संबंधित संवैधानिक प्रावधान, इसके लाभ और चुनौतियाँ और आगे की राह को समझाना है।

समान नागरिक संहिता का अर्थ

एक समान नागरिक संहिता (UCC) एक ऐसे सामान्य कानून को संदर्भित करता है जो व्यक्तिगत मामलों जैसे विवाह, विरासत, तलाक, गोद लेने आदि में सभी धार्मिक समुदायों पर लागू होता है। इसका उद्देश्य विभिन्न व्यक्तिगत कानूनों को प्रतिस्थापित करना है जो वर्तमान में विभिन्न धार्मिक समुदायों के भीतर व्यक्तिगत मामलों को नियंत्रित करते हैं।

यूसीसी का मुख्य उद्देश्य विभिन्न धर्मों और समुदायों पर आधारित असमान कानूनी प्रणालियों को समाप्त करके सामाजिक सद्भाव, लैंगिक समानता और धर्मनिरपेक्षता को बढ़ावा देना है। इस संहिता का लक्ष्य, न केवल समुदायों के बीच बल्कि एक समुदाय के भीतर भी कानूनों की एकरूपता को सुनिश्चित करना है।

संवैधानिक प्रावधान

भारत के संविधान के अनुच्छेद 44 में उल्लिखित राज्य नीति के निर्देशक तत्त्वों में यह प्रावधान है कि “राज्य पूरे भारत के क्षेत्र में नागरिकों के लिए एक समान नागरिक संहिता सुनिश्चित करने का प्रयास करेगा।” हालाँकि, राज्य नीति के निर्देशक तत्त्व होने के कारण, यह न्यायालय द्वारा प्रवर्तनीय नहीं है।

भारत में समान नागरिक संहिता की स्थिति

  • वर्तमान में भी भारत में राष्ट्रीय स्तर पर समान नागरिक संहिता (UCC) लागू नहीं है। इसी कारण से भारत में धार्मिक रीति-रिवाजों और प्रथाओं पर आधारित अलग-अलग व्यक्तिगत कानून विभिन्न धार्मिक समुदायों के लिए विवाह, तलाक, विरासत और गोद लेने जैसे मामलों को नियंत्रित करते हैं।
  • हालाँकि, विगत कुछ वर्षों में, केंद्र सरकार के साथ-साथ कुछ राज्यों ने UCC के कार्यान्वयन के लिए कुछ प्रयास किये हैं। इन प्रयासों को निम्नलिखित दो शीर्षकों के अंतर्गत देखा जा सकता है:

केंद्र द्वारा उठाए गए कदम

विशेष विवाह अधिनियम, 1954

यह अधिनियम विवाह के लिए एक धर्मनिरपेक्ष विकल्प प्रदान करने के लिए अधिनियमित किया गया था। यह भारत के लोगों और विदेशों में रहने वाले सभी भारतीय नागरिकों के लिए सिविल विवाह का प्रावधान करता है, चाहे किसी भी पक्ष का धर्म या आस्था कुछ भी हो।

हिंदू कोड बिल

1950 के दशक में संसद द्वारा पारित हिंदू कोड बिलों को यूसीसी की दिशा में एक कदम के रूप में देखा जाता है। इसके अंतर्गत अधिनियमित निम्नलिखित 4 अधिनियम हिंदू समुदाय के भीतर व्यक्तिगत कानूनों को संहिताबद्ध करने और उनमें एकरूपता लाने का प्रयास करते हैं:

  • हिंदू विवाह अधिनियम, 1955
  • हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956
  • हिंदू अल्पसंख्यक और संरक्षकता अधिनियम, 1956
  • हिंदू दत्तक और भरण-पोषण अधिनियम, 1956

नोट: इन कानूनों के प्रयोजन के लिए ‘हिंदू’ शब्द में सिख, जैन और बौद्ध भी शामिल हैं।

राज्यों द्वारा उठाए गये कदम

गोवा

  • गोवा भारत का पहला राज्य है जहाँ समान नागरिक संहिता लागू है। 1961 में भारत द्वारा इस क्षेत्र को नियंत्रण में लेने के पश्चात् संसद ने 1867 के पुर्तगाली नागरिक संहिता को जारी रखने के लिए एक कानून बनाया।
    • गोवा में इस कानून को गोवा सिविल कोड या गोवा फैमिली कोड के नाम से जाना जाता है और यह सभी गोवावासियों पर लागू होता है, चाहे वे किसी भी धार्मिक या जातीय समुदाय के हों।

उत्तराखंड

  • हाल ही में, उत्तराखंड ने समान नागरिक संहिता उत्तराखंड 2024 विधेयक पारित किया है, जो समान नागरिक संहिता (UCC) लागू करने वाला भारत का पहला राज्य बन गया है।
    • यह विधेयक विवाह, तलाक, संपत्ति के उत्तराधिकार आदि जैसे मामलों के लिए एक समान कानून का प्रावधान करता है, और अनुसूचित जनजातियों को छोड़कर उत्तराखंड के सभी निवासियों पर लागू होता है।

वर्तमान स्थिति

  • भारत में समान नागरिक संहिता (UCC) का देशव्यापी कार्यान्वयन अभी भी एक दूर का सपना बना हुआ है।
  • अब तक, विभिन्न धर्मों से संबंधित व्यक्तियों के विवाह और तलाक से जुड़े अधिकांश पहलुओं को उनके संबंधित व्यक्तिगत कानूनों द्वारा नियंत्रित किया जाता है, जैसे:
    • हिंदू विवाह अधिनियम (1955)
    • मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरीयत) एप्लिकेशन एक्ट (1937)
    • ईसाई मैरिज ऐक्ट (1872)
    • पारसी विवाह और तलाक अधिनियम (1937) इत्यादि

संविधान सभा में बहस

समान नागरिक संहिता (यूसीसी) के मुद्दे पर संविधान सभा में व्यापक बहस हुई। बहस के दौरान प्रस्तुत प्रमुख तर्कों को संक्षेप में इस प्रकार प्रस्तुत किया जा सकता है:

पक्ष में तर्क

समान नागरिक संहिता (UCC) के समर्थकों में संविधान सभा के सदस्य बी.आर. आंबेडकर, अल्लादी कृष्णास्वामी अय्यर और के.एम. मुंशी शामिल थे। उन्होंने एक समान नागरिक संहिता के पक्ष में निम्नलिखित तर्क दिये:

  • समानता और न्याय: उनके अनुसार, एक समान नागरिक संहिता धार्मिक संबद्धता की परवाह किए बिना सभी नागरिकों के लिए समान कानून सुनिश्चित करके समानता और न्याय के सिद्धांतों को बनाए रखेगी।
  • धर्मनिरपेक्षता: एक समान नागरिक संहिता भारतीय राज्य की धर्मनिरपेक्ष प्रकृति के साथ संरेखित होगी, व्यक्तिगत कानूनों को धार्मिक विचारों से अलग करेगी और एकीकृत राष्ट्रीय पहचान को बढ़ावा देगी।
  • महिलाओं के अधिकार: यह कोड व्यक्तिगत कानूनों में प्रचलित भेदभावपूर्ण प्रथाओं, विशेष रूप से विवाह, तलाक और विरासत जैसे मामलों में महिलाओं के अधिकारों को प्रभावित करने वाली प्रथाओं को प्रतिबंध कर सकता है। इस प्रकार, यह लैंगिक समानता और महिला सशक्तिकरण को बढ़ावा देगा।

विपक्ष में तर्क

समान नागरिक संहिता (UCC) के विरोधियों में संविधान सभा के सदस्य नजीरुद्दीन अहमद और मोहम्मद इस्माइल खान जैसे सदस्य शामिल थे। उन्होंने समान नागरिक संहिता के बारे में निम्नलिखित आशंकाएँ व्यक्त कीं:

  • धार्मिक स्वायत्तता: यह विभिन्न समुदायों की धार्मिक स्वायत्तता पर संभावित रूप से अतिक्रमण कर सकता है क्योंकि यह उन समुदायों की सहमति के बिना धार्मिक रीति-रिवाजों और परंपराओं में हस्तक्षेप करेगा।
  • सांस्कृतिक संवेदनशीलता: एक समान कोड विभिन्न समुदायों के विशिष्ट रीति-रिवाजों और संवेदनशीलताओं को पर्याप्त रूप से समायोजित नहीं कर सकता है। इसके परिणामस्वरूप, यह भारत में धार्मिक और सांस्कृतिक प्रथाओं की विविधता को बाधित कर सकता है।
  • सामाजिक अशांति: व्यक्तिगत मामलों से संबंधित प्रथाएँ भारत में विभिन्न समुदायों की धार्मिक और सांस्कृतिक पहचानों में गहराई से निहित हैं। एक समान नागरिक संहिता को लागू करने का तात्पर्य उन्हें अपनी पहचान त्यागने के लिए बाध्य करना हो सकता है और इससे सामाजिक अशांति और सांप्रदायिक तनाव पैदा हो सकता है।

चूंकि समान नागरिक संहिता पर संविधान सभा में आम सहमति नहीं बन पाई थी, इसलिए इसे अनुच्छेद 44 के तहत राज्य के नीति निर्देशक तत्त्वों के अंतर्गत रखा गया था।

समान नागरिक संहिता: उच्चतम न्यायालय के ऐतिहासिक निर्णय

समान नागरिक संहिता के मुद्दे पर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा विभिन्न मामलों में विचार किया गया है। तदनुसार, सर्वोच्च न्यायालय ने कई ऐतिहासिक निर्णय और टिप्पणियाँ पारित की हैं जिन्होंने यूसीसी पर चर्चा में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। इनमें से कुछ निम्नलिखित हैं:

मोहम्मद अहमद खान बनाम शाह बानो बेगम (1985)इस मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि मुस्लिम महिलाएं दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 के तहत इद्दत अवधि से अलग भी गुजारा भत्ता पाने की हकदार हैं। इसमें कहा गया कि एक समान नागरिक संहिता कुछ धार्मिक विचारधाराओं पर आधारित विरोधाभासों को दूर करने में मदद करेगी।
सरला मुद्गल बनाम भारत संघ (1995)इस मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि एक हिंदू पति, इस्लाम धर्म अपनाने के पश्चात् अपनी पहली शादी को ख़त्म किये बिना दूसरा विवाह नहीं कर सकता। माननीय न्यायालय ने लैंगिक न्याय और समानता सुनिश्चित करने के लिए एक समान नागरिक संहिता की आवश्यकता पर जोर दिया।
शायरा बानो बनाम भारत संघ (2017)इस मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने तीन तलाक को असंवैधानिक घोषित कर दिया, यह कहते हुए कि यह मुस्लिम महिलाओं के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है। इस फैसले ने लैंगिक भेदभाव को दूर करने और विवाह एवं तलाक को नियंत्रित करने वाले समान कानूनों को सुनिश्चित करने के लिए एक समान नागरिक संहिता लागू करने की आवश्यकता को रेखांकित किया।
जोसेफ शाइन बनाम भारत संघ (2018)इस मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने व्यभिचार से संबंधित आईपीसी की धारा 497 को इस आधार पर रद्द कर दिया कि यह संविधान के अनुच्छेद 14, 15 और 21 का उल्लंघन करता है। अदालत ने लैंगिक-तटस्थ कानूनों की आवश्यकता पर जोर दिया और व्यक्तिगत कानूनों में विसंगतियों को दूर करने के लिए एक समान नागरिक संहिता लागू करने का सुझाव दिया।
इंडियन यंग लॉयर्स एसोसिएशन बनाम केरल राज्य (2018)इस मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने केरल में सबरीमला मंदिर में मासिक धर्म वाली महिलाओं के प्रवेश पर प्रतिबंध को संबोधित किया। फैसले में परस्पर विरोधी अधिकारों को सामंजस्य स्थापित करने और सभी धर्मों में लैंगिक समानता सुनिश्चित करने के लिए एक समान नागरिक संहिता की आवश्यकता को रेखांकित किया गया।

समान नागरिक संहिता : भारत विधि आयोग के विचार

भारत के विधि आयोग ने समय-समय पर समान नागरिक संहिता (UCC) और उसके भारतीय समाज पर पड़ने वाले प्रभावों की जांच की है। विधि आयोग द्वारा की गई कुछ उल्लेखनीय टिप्पणियां इस प्रकार हैं:

21वाँ भारतीय विधि आयोग (अध्यक्ष: न्यायमूर्ति बलबीर सिंह चौहान)

  • इस आयोग ने विचार व्यक्त किया कि यूसीसी लागू करना इस समय आवश्यक या वांछनीय नहीं हो सकता है। इसके बजाय, उन्होंने विभिन्न समुदायों से संबंधित विभिन्न व्यक्तिगत कानूनों के भीतर सुधारों का सुझाव दिया।
  • इस प्रकार, उन्होंने एकल समान कानून का प्रस्ताव करने के बजाय सभी धर्मों के अंतर्गत न्याय और समानता सुनिश्चित करने के उद्देश्य से मौजूदा पारिवारिक कानूनों में संशोधन और परिवर्तन की सिफारिश की।

22वाँ भारतीय विधि आयोग (अध्यक्ष: न्यायमूर्ति ऋतुराज अवस्थी)

इस आयोग ने यूसीसी पर एक परामर्श पत्र जारी किया है, जिसमें इस मुद्दे पर जनता से प्रतिक्रिया माँगी गई है। धार्मिक संगठनों, कानूनी विशेषज्ञों, नीति निर्माताओं और सिविल सोसाइटी समूहों सहित आबादी के विभिन्न वर्गों को यूसीसी की व्यवहार्यता, निहितार्थ और संभावित ढांचे के बारे में अपने विचार प्रस्तुत करने के लिए कहा गया है।

समान नागरिक संहिता के पक्ष में तर्क

उपरोक्त चर्चा और विशेषज्ञों की राय के आधार पर, यूसीसी को लागू करने के पक्ष में निम्नलिखित तर्क दिए जा सकते हैं:

  • कानूनी प्रणाली का सरलीकरण: सभी के लिए कानूनों का एक समुच्चय होने से व्यक्तिगत कानूनों को सरल बनाया जाएगा जो वर्तमान में धार्मिक मान्यताओं के आधार पर अलग-अलग हैं। इससे बदले में, कानूनी ढांचे और कानूनी प्रक्रिया को सरल बनाया जाएगा।
  • समानता को बढ़ावा: यूसीसी का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि भारत के सभी नागरिकों, चाहे उनका धर्म कोई भी हो, कानून के तहत समान व्यवहार किया जाए। इस प्रकार, यह प्रस्तावना में परिकल्पित समानता के आदर्श को बढ़ावा देने में मदद करेगा।
  • धर्मनिरपेक्षता को बढ़ावा देना: यूसीसी एक धर्मनिरपेक्ष राज्य को प्राप्त करने में मदद करेगा जहाँ कानून सभी के लिए समान है, चाहे उनका धर्म कुछ भी हो। इस प्रकार, यह देश में धर्मनिरपेक्षता के आदर्श को बढ़ावा देने में मदद करेगा।
  • लैंगिक समानता और महिला सशक्तिकरण को बढ़ावा देना: विभिन्न धार्मिक समुदायों के वर्तमान व्यक्तिगत कानून महिलाओं को विवाह, तलाक, विरासत एवं संपत्ति के अधिकारों से संबंधित मामलों में नुकसानदेह स्थिति में रखते हैं। यूसीसी को लागू करने से इन क्षेत्रों में महिलाओं को समान व्यवहार और अवसर सुनिश्चित होंगे, जिससे लैंगिक समानता और महिला सशक्तिकरण के कार्य को बढ़ावा मिलेगा।
  • राष्ट्रीय एकीकरण को बढ़ावा देना: सभी नागरिकों के लिए एक समान कानून होने से एकता और राष्ट्रीयता की भावना को बढ़ावा देगा। यह, बदले में, राष्ट्रीय एकता और अखंडता को बढ़ावा देगा और भारत को सच्चे अर्थों में एक राष्ट्र के रूप में उभरने में मदद करेगा।
  • आधुनिकीकरण को बढ़ावा देना: पुराने धार्मिक कानूनों को समाप्त करके,UCC वर्तमान मूल्यों और नैतिकता के आधार पर एक आधुनिक लोकतांत्रिक समाज की प्रगतिशील आकांक्षाओं को प्रतिबिंबित करेगा।
  • वैश्विक छवि में सुधार: UCC को अपनाने से समानता, न्याय और धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांतों को बनाए रखने के लिए प्रतिबद्ध एक प्रगतिशील और समावेशी लोकतंत्र के रूप में भारत की अंतरराष्ट्रीय छवि में वृद्धि होगी। यह भारत के कानूनी ढांचे को वैश्विक मानवाधिकार मानकों और आधुनिक लोकतांत्रिक प्रथाओं के साथ संरेखित करेगा।

समान नागरिक संहिता के विरोध में तर्क

कई आलोचकों ने समान नागरिक संहिता लागू करने के ख़िलाफ़ निम्नलिखित तर्क दिये हैं:

  • आम सहमति का अभाव: विभिन्न समुदायों के बीच इस बात पर कोई सहमति नहीं है कि यूसीसी में क्या शामिल होना चाहिए। समान संहिता के सिद्धांतों और प्रावधानों पर सहमति की कमी के कारण ऐसे यूसीसी की कल्पना करना मुश्किल हो जाता है जो सभी को स्वीकार्य हो।
  • कार्यान्वयन संबंधी चुनौतियाँ: विभिन्न समुदायों को नियंत्रित करने वाले कानूनों की विविधता ही UCC का प्रारुप तैयार करना और उसे लागू करना एक कठिन कार्य बनाती है। ऐसा कोड बनाना आसान नहीं होगा जो प्रत्येक समुदाय के कानूनों की बारीकियों को पर्याप्त रूप से संबोधित और सम्मान करता हो।
  • धार्मिक स्वतंत्रता को खतरा: यूसीसी के माध्यम से एक समान कानून लागू होने से नागरिकों की धार्मिक स्वतंत्रता का उल्लंघन होगा जो उनकी धार्मिक मान्यताओं और प्रथाओं के विपरीत हो सकता है। इससे धार्मिक मामलों में राज्य का हस्तक्षेप भी हो सकता है।
  • सांस्कृतिक विविधता को खतरा: ऐसे विविध समुदायों पर एक समान कानून थोपने से विभिन्न धार्मिक समूहों की विशिष्ट सांस्कृतिक प्रथाओं, परंपराओं, रीति-रिवाजों और संवेदनशीलताओं की अनदेखी होगी। कुल मिलाकर, यह विविधता के विचार के खिलाफ जा सकता है।
  • बहुसंख्यकवाद का भय: इस बात की चिंता है कि एक UCC बहुसंख्यक धर्म की मान्यताओं और प्रथाओं को प्रतिबिंबित कर सकता है। इस प्रकार, यह अल्पसंख्यकों पर बहुसंख्यक दृष्टिकोण थोपने के समान हो सकता है और इसलिए अल्पसंख्यक समूहों के हाशिए पर जाने का कारण बन सकता है।
  • सामाजिक अशांति का खतरा: धार्मिक और सांस्कृतिक प्रथाओं के प्रति संवेदनशीलता को देखते हुए, UCC को लागू करने का प्रयास सामाजिक अशांति को जन्म दे सकता है और सांप्रदायिक विभाजन को गहरा कर सकता है।
  • संघवाद को कमजोर करना: व्यक्तिगत मामलों के समवर्ती सूची में होने के कारण, संसद और राज्य विधायिका दोनों को उन पर कानून बनाने का अधिकार है। यूसीसी लागू करना ऐसे मामलों पर कानून बनाने के राज्यों के अधिकारों का अतिक्रमण करके संघीय ढांचे को कमजोर कर सकता है।

आगे की राह

  • संवाद और परामर्श: समान नागरिक संहिता (UCC) को लेकर धार्मिक समुदायों, कानूनी विशेषज्ञों, नीति निर्माताओं और सिविल सोसाइटी आदि संगठनों सहित सभी हितधारकों के साथ व्यापक संवाद और परामर्श होना चाहिए। इससे उनकी चिंताओं और दृष्टिकोणों को समझने में मदद मिलेगी।
  • जन जागरूकता और शिक्षा: UCC के लाभों और निहितार्थों के बारे में जनता को सूचित करने के लिए जागरूकता अभियान और शैक्षिक कार्यक्रम आयोजित करना। इससे आम सहमति बनाने और कार्यान्वयन के लिए समर्थन जुटाने में मदद मिल सकती है।
  • समावेशिता: यूसीसी को इस तरह से तैयार किया जाना चाहिए कि वह धार्मिक विविधता का सम्मान करते हुए लैंगिक समानता और न्याय को बढ़ावा दे।
  • क्रमिक कार्यान्वयन: प्रारम्भ में कम से कम विरोध वाले क्षेत्रों में लागू करकें धीरे-धीरे इसके दायरे को चरणबद्ध तरीके बढ़ाया जा सकता है, इससे सम्पूर्ण भारत में UCC को लागू करने से उत्पन्न होने वाली चिंताओं को कम करने और सुचारू परिवर्तन सुनिश्चित करने में मदद मिल सकती है।
  • निगरानी और मूल्यांकन: जब भी यूसीसी लागू हो जाए, तो उसके कार्यान्वयन की निगरानी और समाज पर उसके प्रभाव का मूल्यांकन करने के लिए एक तंत्र स्थापित किया जाना चाहिए। इससे आवश्यक समायोजन और सुधार करने एवं इसके कार्यान्वयन की प्रक्रिया को सुचारू बनाने में मदद मिलेगी।
  • राजनीतिक इच्छाशक्ति: राजनीतिक नेताओं को UCC कार्यान्वयन से जुड़ी जटिलताओं और चुनौतियों से निपटने के लिए नेतृत्व और दृढ़ इच्छाशक्ति की आवश्यकता है।

निष्कर्षत: सार्वजनिक न्याय, समानता और धर्मनिरपेक्षता की दिशा में भारत की यात्रा के लिए समान नागरिक संहिता (UCC) एक महत्त्वपूर्ण अनिवार्यता है। कुछ कमियों और कार्यान्वयन संबंधी चुनौतियों के बावजूद, यूसीसी से अपार लाभ मिलने की संभावना है। लैंगिक समानता और सामाजिक सामंजस्य सुनिश्चित करने से लेकर कानूनी प्रक्रियाओं को सरल बनाने और आधुनिकीकरण को बढ़ावा देने तक, यूसीसी उत्पीड़ितों की रक्षा के साथ-साथ राष्ट्रीय एकता और एकजुटता को बढ़ावा देने का वादा करती है।

सामान्यत: पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQs)

समान नागरिक संहिता क्या है?

यूसीसी एक सामान्य कानून को संदर्भित करता है जो विवाह, विरासत आदि जैसे व्यक्तिगत मामलों में सभी धार्मिक समुदायों पर लागू होता है। इसका उद्देश्य विभिन्न व्यक्तिगत कानूनों को प्रतिस्थापित करना है जो वर्तमान में विभिन्न धार्मिक समुदायों के भीतर व्यक्तिगत मामलों को नियंत्रित करते हैं।

भारत में समान नागरिक संहिता की क्या आवश्यकता है?

भारत में समान नागरिक संहिता (UCC) की आवश्यकता भारत में समानता, धर्मनिरपेक्षता और राष्ट्रीय एकता स्थापित करने की अनिवार्यता से उत्पन्न होती है।

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