भारतीय बैंकिंग परिदृश्य में सहकारी बैंक अपनी अवधारणा और कार्यप्रणाली के कारण एक विशिष्ट स्थान रखते हैं। बैंकिंग प्रणाली में एक समुदाय-केंद्रित दृष्टिकोण को अपनाते हुए सहकारी बैंक वित्तीय समावेशन को सुगम बनाने के लिए महत्त्वपूर्ण हैं, विशेषकर ग्रामीण और कृषि क्षेत्रों में, इसलिए NEXT IAS के इस लेख का उद्देश्य सहकारी बैंकों का विस्तार से अध्ययन करना है, जिसके अंतर्गत उनके अर्थ, प्रकार, संरचना, महत्त्व और संबंधित तथ्य शामिल है।
सहकारी बैंक क्या होते हैं?
सहकारी बैंक, उन वित्तीय संस्थानों को संदर्भित करते हैं जो भारत में बैंकिंग प्रणाली के तहत कार्य करते हैं तथा अपने सदस्यों के लिए सहयोग और पारस्परिक लाभ के सिद्धांतों पर आधारित होते हैं।
भारत में सहकारी बैंकों की विशेषताएँ
- ये अपने सदस्यों से संबंधित होते हैं जो बैंक के शेयरधारक और ग्राहक दोनों होते हैं।
- इस प्रकार, यह कहा जा सकता है कि ग्राहक ही इन बैंकों के मालिक होते हैं।
- सहकारी बैंकों का नाम इसलिए रखा गया है क्योंकि इनका उद्देश्य अपने हितधारकों का सहयोग करना होता है।
- ये निर्णय लेने की प्रक्रिया में “एक व्यक्ति, एक वोट” के सिद्धांत पर कार्य करते हैं और सहयोग, स्वयं सहायता और ‘ना लाभ और ना हानि’ के आधार पर प्रबंधित किए जाते हैं।
- ये बैंक उधार देने के साथ-साथ जमाएँ भी स्वीकार करते हैं।
– इन्हें संबंधित राज्य द्वारा पारित राज्य सहकारी समितियाँ अधिनियम के तहत सम्मिलित और पंजीकृत किया जाता है। – राष्ट्रीय कृषि और ग्रामीण विकास बैंक (नाबार्ड) भारत में सहकारी क्षेत्र का शीर्ष निकाय है। |
भारत में सहकारी बैंकों का विनियमन
भारत में, ये बैंक मुख्य रूप से दोहरे नियंत्रण के अंतर्गत आते हैं:
- भारतीय रिज़र्व बैंक: बैंकिंग विनियमन अधिनियम, 1949 और बैंकिंग विधि (सहकारी समितियों को लागू करना) अधिनियम, 1965 के तहत, भारतीय रिज़र्व बैंक इन बैंकों के बैंकिंग पहलुओं, जैसे पूंजी पर्याप्तता, जोखिम नियंत्रण और ऋण देने के मानदंड को विनियमित करने के लिए उत्तरदायी है।
- संबंधित राज्य या केंद्र सरकार के सहकारी समितियों के रजिस्ट्रार (RCS): वे इन बैंकों के प्रबंधन से संबंधित पहलुओं के विनियमन के लिए उत्तरदायी है, जैसे निगमन, पंजीकरण, प्रबंधन, लेखा परीक्षा, निदेशक मंडल का अधिग्रहण और परिसमापन।
वाणिज्यिक बैंकों और सहकारी बैंकों के बीच अंतर
अंतर का आधार | वाणिज्यिक बैंक | सहकारी बैंक |
---|---|---|
स्थापना के रूप में | संयुक्त पूँजी बैंक | सहकारी संस्थाएँ |
शासन अधिनियम | बैंकिंग विनियमन अधिनियम 1949 | सहकारी समितियाँ अधिनियम 1904 |
विनियमन | प्रत्यक्ष रूप से भारतीय रिज़र्व बैंक के नियंत्रण में | सहकारी समितियों के रजिस्ट्रार द्वारा निर्धारित नियमों के अधीन |
SLR और CRR आवश्यकताएँ | तुलनात्मक रूप से अधिक | तुलनात्मक रूप से कम |
सेवाओं की व्यापकता | व्यापक रूप से विभिन्न प्रकार की बैंकिंग सेवाएँ | अपेक्षाकृत कम विभिन्न प्रकार की बैंकिंग सेवाएँ |
कार्य क्षेत्र | बड़े पैमाने पर संचालन, आमतौर पर देशव्यापी | छोटे पैमाने पर संचालन, आमतौर पर एक क्षेत्र तक सीमित |
जमाएँ राशि पर ब्याज दर | सहकारी बैंकों की तुलना में जमाएँ राशि पर कम ब्याज दर प्रदान करते हैं। | जमाएँ राशि पर अपेक्षाकृत अधिक ब्याज दर प्रदान करते हैं। |
मुख्य कार्य | मुख्य रूप से उद्योग, व्यापार और वाणिज्य को अल्पकालीन वित्त प्रदान करते हैं, जिसमें निर्यात आदि जैसे प्राथमिकता वाले क्षेत्र भी शामिल हैं। | आमतौर पर कृषकों की ऋण आवश्यकताओं को पूरा करते हैं। |
उधारकर्ता | वाणिज्यिक बैंकों के उधारकर्ता केवल खाताधारक होते हैं और उनके पास मत देने का कोई अधिकार नहीं होता है, इसलिए उनका इन बैंकों की ऋण नीति पर कोई नियंत्रण नहीं होता है। | उधारकर्ता सदस्य शेयरधारक होते हैं, इसलिए उनकी मतदान शक्ति के कारण बैंकों की ऋण नीति पर उनका कुछ नियंत्रण होता है। |
ऋण देने में लचीलापन | वाणिज्यिक बैंक ऋण देने के विकल्पों के मामले में अधिक सख्त नहीं होते हैं। | सहकारी समितियों के सख्त नियमों के कारण सहकारी बैंकों के पास लचीलेपन की अधिक गुंजाइश नहीं है। |
भारत में सहकारी बैंकों की संरचना
भारत में बैंकिंग प्रणाली के तहत इन बैंकों को मुख्य रूप से ग्रामीण सहकारी बैंक (RCBs) और शहरी सहकारी बैंक (UCBs) में वर्गीकृत किया गया है। उन्हें आगे उप-वर्गीकृत किया गया है जैसा कि नीचे दिखाया गया है:
शहरी सहकारी बैंक (UCBs)
- ये शहरी और अर्ध-शहरी क्षेत्रों में कार्य करते हैं।
- ये मुख्य रूप से छोटे उधारकर्ताओं और व्यवसायों को ऋण देते हैं।
- उनके विनियमन शासन के आधार पर, उन्हें दो प्रकारों में वर्गीकृत किया जाता है – अनुसूचित बैंक और गैर-अनुसूचित बैंक।
ग्रामीण सहकारी बैंक (RCBs)
- ये ग्रामीण क्षेत्रों के लोगों की वित्तीय जरूरतों को पूरा करने पर ध्यान केंद्रित करते हैं।
- ऋण देने के प्रकार के आधार पर, उन्हें 2 उप-श्रेणियों में विभाजित किया गया है – अल्पकालिक संरचनाएँ और दीर्घकालिक संरचनाएँ।
अल्पकालिक संरचनाएँ (Short-Term Structures)
- ये कृषि गतिविधियों, बीज और उर्वरक खरीदने आदि कार्यों के लिए 1 वर्ष तक का ऋण देते हैं।
- इनका 3-स्तरीय सेटअप होता है:
राज्य सहकारी बैंक (State Cooperative Banks)
- प्रत्येक राज्य का अपना राज्य सहकारी बैंक होता है, जो उस विशेष राज्य में सहकारी बैंकों के लिए शीर्ष निकाय होता है।
- ये राज्य स्तर पर कार्य करते हैं।
- यह एक तरफ RBI एवं नाबार्ड तथा दूसरी तरफ केंद्रीय या जिला सहकारी बैंक एवं प्राथमिक कृषि ऋण समितियों के बीच मध्यस्थ के रूप में कार्य करता है।
जिला केंद्रीय सहकारी बैंक (DCCBs)
- ये जिला स्तर पर कार्य करते हैं।
- उन्हें राज्य सहकारी बैंक से ऋण मिलता है तथा यह प्राथमिक कृषि ऋण समितियों एवं व्यक्तियों को ऋण प्रदान करता है।
प्राथमिक कृषि ऋण समितियाँ (PACS)
- प्राथमिक कृषि ऋण समितियाँ (PACS) भारत में एक मूल इकाई और सबसे छोटी सहकारी ऋण संस्था है।
- ये ग्राम पंचायत और ग्राम स्तर पर कार्य करती हैं।
- ये अपने सदस्यों को कृषि कार्यों के लिए अल्पकालिक ऋण (1 वर्ष से 3 वर्ष) प्रदान करती हैं।
दीर्घकालिक संरचनाएँ (Long-Term Structures)
- ये मध्यम और दीर्घकालिक निधि आवश्यकताओं (1.5 वर्ष – 25 वर्ष) को पूरा करने के लिए ऋण देते हैं, जैसे कि भूमि विकास, पंप खरीद आदि के लिए।
- उनके पास एक 2-स्तरीय सेटअप है:
राज्य सहकारी कृषि और ग्रामीण विकास बैंक (SCARDBs)
राज्य सहकारी कृषि और ग्रामीण विकास बैंक (SCARDBs) कृषि और ग्रामीण विकास उद्देश्यों के लिए दीर्घकालिक ऋण प्रदान करने पर ध्यान केंद्रित करते हैं।
प्राथमिक सहकारी कृषि और ग्रामीण विकास बैंक (PCARDBs)
प्राथमिक सहकारी कृषि और ग्रामीण विकास बैंक (PCARDBs) का लक्ष्य ग्रामीण क्षेत्रों, विशेष रूप से छोटे और सीमांत किसानों, कृषि श्रमिकों और ग्रामीण कारीगरों को वित्तीय सेवाएं प्रदान करना है।
भारत में सहकारी बैंकों का महत्त्व
भारतीय अर्थव्यवस्था में बैंकिंग कार्यप्रणाली में सहकारी बैंक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। उनकी कुछ प्रमुख भूमिकाओं को निम्न प्रकार से देखा जा सकता है:
- वित्तीय समावेशन: समाज के उन वर्गों तक पहुंच सुनिश्चित करना, जिनके पास बैंकों में खाता नहीं है या जिनके पास कम बैंकिंग सुविधाएँ हैं, वे वित्तीय समावेशन को बढ़ावा देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
- ऋण प्राप्त करने में आसानी: वे अपने ग्राहकों को प्रतिस्पर्धी ब्याज दरों पर क्रेडिट तक आसान पहुंच प्रदान करते हैं।
- बचत को बढ़ावा देना: वे ग्रामीण आवश्यकताओं के अनुरूप जमा खाते प्रदान करके बचत की आदतों को प्रोत्साहित करते हैं।
- स्थानीय विकास: ये बैंक स्थानीय जरूरतों को बेहतर ढंग से समझते हैं और इस प्रकार विभिन्न कृषि और ग्रामीण विकास गतिविधियों के लिए वित्तपोषित करके स्थानीय विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
- ग्रामीण विकास: इन बैंकों में से अधिकांश ग्रामीण क्षेत्रों में कार्य करते हैं, जो किसानों, छोटे व्यवसायों और निम्न-आय वाले घरों की विशिष्ट जरूरतों को पूरा करते हैं।
- वित्तीय साक्षरता को बढ़ावा देना: ये बैंक प्राय: वित्तीय साक्षरता शिक्षक के रूप में कार्य करते हैं, जिससे ग्रामीण समुदायों को वित्तीय निर्णय लेने के लिए सशक्त बनाया जाता है।
बैंकिंग सुविधाओं से वंचित वर्गों तक संस्थागत ऋण की आसान पहुँच को सक्षम करके, भारत में सहकारी बैंक देश के सामाजिक-आर्थिक विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। उनकी भूमिका छोटे उद्योगों, स्वरोजगार और उन व्यवसायों को बढ़ावा देने में महत्त्वपूर्ण बनी हुई है जो बड़े बैंकों की कठोर आवश्यकताओं को पूरा नहीं कर पाते हैं। देश के बदलते आर्थिक और तकनीकी परिदृश्य के साथ, इन बैंकों में अधिक ग्रामीण और शहरी समुदायों को सशक्त बनाने की क्षमता है, जो समावेशी विकास और आर्थिक विकास के भारत के एजेंडे को आगे बढ़ाएगा।
बैंकिंग विनियमन (संशोधन) अधिनियम, 2020
कुछ UCBs, से संबंधित संकटों के मद्देनजर, बैंकिंग विनियमन अधिनियम, 1949 को बैंकिंग विनियमन (संशोधन) अधिनियम, 2020 के माध्यम से संशोधित किया गया था। इसका उद्देश्य सभी UCBs और बहु-राज्य सहकारी बैंकों को भारतीय रिज़र्व बैंक (RBI) के प्रत्यक्ष निगरानी में लाना है।
अधिनियम की प्रमुख विशेषताएँ
- पहले, सहकारी बैंकों को बैंकिंग विनियमन अधिनियम, 1949 के कई प्रावधानों से छूट दी गई थी। 2020 का संशोधन अधिनियम इनमें से कुछ प्रावधानों को उन पर लागू करता है, जिससे उनका अधिनियम के तहत विनियमन वाणिज्यिक बैंकों के समान हो जाता है।
- इसका उद्देश्य प्रबंधन, पूंजी, ऑडिट और समापन के संबंध में सहकारी बैंकों पर RBI नियामक नियंत्रण का विस्तार करना है।
- RBI इन बैंकों के अध्यक्ष की सेवा के लिए शर्तों और योग्यताओं को निर्धारित कर सकता है। (पहले, यह केवल बहु-राज्य सहकारी बैंकों के लिए ही था।)
- RBI ऐसे अध्यक्ष को हटा सकता है जो ‘उपयुक्त और योग्य’ मानदंडों को पूरा नहीं करते हैं और एक उपयुक्त व्यक्ति को नियुक्त कर सकता है।
- यह योग्य सदस्यों की पर्याप्त संख्या सुनिश्चित करने के लिए निदेशक मंडल के पुनर्गठन के निर्देश जारी कर सकता है।
- RBI राज्य सरकार के परामर्श से सहकारी बैंक के निदेशक मंडल को को भंग कर सकता है।
- यह अधिनियम भारतीय रिज़र्व बैंक को जनहित में किसी बैंक का विलय या पुनर्गठन करने की अनुमति देता है, इसके लिए स्थगन (moratorium) आदेश देने की आवश्यकता नहीं होती है। स्थगन आदेश न केवल जमाकर्ताओं द्वारा निकासी को सीमित कर देता है बल्कि बैंक के ऋण संचालन को भी बाधित कर सकता है।
- पहले, RBI को किसी भी वित्तीय संकट का सामना कर रहे बैंक (stressed banks) के लिए पुनरुद्धार योजना तैयार करने से पहले उसे स्थगन के अंतर्गत रखना पड़ता था। स्थगन अवधि के दौरान कोई कानूनी कार्रवाई प्रारम्भ नहीं की जा सकती थी।
- अब इन बैंकों का लेखा परीक्षण अनुसूचित वाणिज्यिक बैंकों के समान स्तर पर किया जाएगा।
- परिसमापन से संबंधित कुछ प्रावधान और बैंकों के परिसमापन की कार्यवाही के त्वरित निपटान के लिए विशेष प्रावधान अब इन बैंकों पर लागू होंगे।
- यह संशोधन अधिनियम राज्य सहकारी कानूनों के अंतर्गत राज्य सहकारी समितियों के रजिस्ट्रारों की मौजूदा शक्तियों को प्रभावित नहीं करता है।
- यह संशोधन प्राथमिक कृषि ऋण समितियों (PACS) या उन सहकारी समितियों पर लागू नहीं होता है जिनका प्राथमिक उद्देश्य और मुख्य व्यवसाय कृषि विकास के लिए दीर्घकालिक वित्त प्रदान करना है।
भारत में सहकारी बैंकों पर सामान्यत: पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQs)
भारत का पहला सहकारी बैंक कौन सा है?
भारत में पहला सहकारी बैंक अन्योन्या सहकारी बैंक (Anyonya Co-operative Bank) था, जिसकी स्थापना वर्ष 1889 में वडोदरा, गुजरात में हुई थी। यह अब संचालित नहीं है।
भारत में सहकारी बैंकों को कौन नियंत्रित करता है?
सहकारी बैंक, भारतीय रिज़र्व बैंक और संबंधित राज्य या केंद्र सरकार के सहकारी समितियों के रजिस्ट्रार के दोहरे नियंत्रण में आते हैं। जहाँ RBI बैंकिंग पहलुओं को नियंत्रित करता है, वहीं सहकारी समितियों के रजिस्ट्रार इन बैंकों के प्रबंधन-संबंधी पहलुओं को नियंत्रित करते हैं।