मौलिक कर्तव्य: अर्थ, विकास, विशेषताएँ, महत्त्व और आलोचना

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मौलिक कर्तव्य
मौलिक कर्तव्य

मौलिक कर्तव्यों की अवधारणा के अंतर्गत नागरिकों में जिम्मेदारी एवं सामूहिक कल्याण के सार को विकसित करना है। भारतीय संविधान में निहित मौलिक कर्तव्य नागरिकों को अपने देश एवं पर्यावरण के साथ एक सौहार्दपूर्ण एवं उत्पादकपूर्ण संबंध बनाने में मार्गदर्शक के रूप में कार्य करते हैं। NEXT IAS का यह लेख मौलिक कर्तव्यों की उत्पत्ति, विशेषताओं, महत्त्व एवं मौलिक अधिकारों के साथ उनके सूक्ष्म संबंधों की जाँच करता है, साथ ही न्यायिक दृष्टिकोण और उनकी आलोचनाओं को भी समझाने का प्रयास करता है।

मौलिक कर्तव्य वे नैतिक दायित्व हैं जो भारत के प्रत्येक नागरिक को संविधान द्वारा सौंपे गए हैं। ये कर्तव्य नागरिकों में देशभक्ति, राष्ट्रीय एकता और भाईचारे की भावना को बढ़ावा देने, सकारात्मक नागरिकता को प्रोत्साहित करने और संविधान के मूल्यों को बनाए रखने के लिए निर्धारित किए गए हैं।

संविधान के भाग IV-A में अनुच्छेद 51A ग्यारह मौलिक कर्तव्य प्रदान करता है। ये मौलिक कर्तव्य नीचे उल्लिखित हैं:

  • संविधान का पालन करना तथा उसके आदर्शों, संस्थाओं, राष्ट्रीय ध्वज तथा राष्ट्रीय गान का सम्मान करना।
  • स्वतंत्रता के लिए राष्ट्रीय संघर्ष को प्रेरित करने वाले महान आदर्शों को संजोना एवं उनका पालन करना।
  • भारत की संप्रभुता, एकता और अखंडता को बनाए रखना और उनकी रक्षा करना।
  • देश की रक्षा करना और आह्वान किए जाने पर राष्ट्रीय सेवा करना।
  • धर्म, भाषा और क्षेत्रीय या विविधताओं से परे भारत के सभी लोगों में सद्भाव और समान भाईचारे की भावना का प्रचार करना तथा महिलाओं की गरिमा के लिए अपमानजनक प्रथाओं का त्याग करना।
  • देश की समृद्ध मिश्रित संस्कृति की विरासत को महत्त्व देना और उसका संरक्षण करना।
  • वन, झील, नदियों और वन्यजीवों सहित प्राकृतिक पर्यावरण की रक्षा करना और उसमें सुधार करना, तथा जीवों के प्रति दयाभाव रखना।
  • वैज्ञानिक दृष्टिकोण, मानवतावाद , खोज तथा सुधार की भावना का विकास करना।
  • सार्वजनिक संपत्ति की रक्षा करना तथा हिंसा का त्याग करना।
  • व्यक्तिगत और सामूहिक गतिविधि के सभी क्षेत्रों में उत्कृष्टता की ओर निरंतर प्रयास करना ताकि राष्ट्र निरंतर उच्च प्रयासों और उपलब्धियों के नए स्तरों तक पहुँचे।
  • अपने छह से चौदह वर्ष की आयु के बीच के बच्चों या आश्रितों को शिक्षा के अवसर प्रदान करना (वर्ष 2002 में 86वें संविधान संशोधन अधिनियम द्वारा जोड़ा गया)।
नोट: भारतीय संविधान में मौलिक कर्तव्य तत्कालीन सोवियत संघ के संविधान से प्रेरित हैं।

मूलतः, भारतीय संविधान में मौलिक कर्तव्य शामिल नहीं थे। हालाँकि, 1975 से 1977 के बीच आंतरिक आपातकाल के दौरान इनकी आवश्यकता और अनिवार्यता महसूस की गई। तदनुसार, सरकार द्वारा कदम उठाए गए जिससे भारत में मौलिक कर्तव्यों का समावेश और विकास हुआ:

  • वर्ष 1976 में, भारत सरकार ने मौलिक कर्तव्यों के बारे में सिफारिशें करने के लिए सरदार स्वर्ण सिंह समिति का गठन किया।
    • समिति ने पाया कि अधिकारों के उपभोग के अतिरिक्त, नागरिकों को कुछ कर्तव्यों का पालन भी करना चाहिए।
    • तदनुसार, इस समिति ने संविधान में मौलिक कर्तव्यों पर एक अलग अध्याय को शामिल करने की सिफारिश की, इनमे 8 मौलिक कर्तव्यों की सूची थी।
  • केंद्र सरकार ने सरदार स्वर्ण सिंह समिति की सिफारिशों को स्वीकार कर लिया और भारत के संविधान में मौलिक कर्तव्यों की सूची को शामिल करने का निर्णय लिया।
    • इसके अनुसार, 1976 में 42वें संविधान संशोधन अधिनियम को अधिनियमित किया गया, जिसने संविधान में एक नया भाग (भाग IVA) जोड़ा। इस नए भाग में केवल एक अनुच्छेद (अनुच्छेद 51A) है जो भारत के नागरिकों के दस मौलिक कर्तव्यों की एक संहिता निर्दिष्ट करता है।
    • यह ध्यान देने योग्य है कि यद्यपि स्वर्ण सिंह समिति ने आठ मौलिक कर्तव्यों को शामिल करने की सिफारिश की थी, 42वें संविधान संशोधन अधिनियम में दस मौलिक कर्तव्यों को शामिल किया गया।
  • वर्ष 2002 के 86वें संविधान संशोधन अधिनियम ने एक और मौलिक कर्तव्य (छह से चौदह वर्ष की आयु के बीच अपने बच्चे को शिक्षा के अवसर प्रदान करना) जोड़ा।
  • तब से भारतीय संविधान में मौलिक कर्तव्यों की सूची निरंतर बनी हुई है।

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 51-A में उल्लिखित मौलिक कर्तव्यों में कई मुख्य विशेषताएं हैं जो इस प्रकार हैं:

  • गैर-योग्यसंगत (Non-Justiciable) – ये कर्तव्य न्याय योग्य नहीं हैं, अर्थात ये न्यायपालिका के माध्यम से कानून द्वारा लागू नहीं किए जा सकते। यद्यपि, ये नागरिकों के लिए नैतिक दायित्वों और मार्गदर्शक सिद्धांतों के रूप में कार्य करते हैं।
  • प्रवर्तनीयता का दायरा (Scope of Applicability) – ये कर्तव्य केवल नागरिकों तक ही सीमित हैं और विदेशियों तक विस्तारित नहीं हैं।
  • विभिन्न स्रोतों से प्राप्त (Derived from Various Sources) – ये कर्तव्य विभिन्न स्रोतों से प्रेरणा लेते हैं, जिनमें पूर्व सोवियत संघ का संविधान, महात्मा गाँधी जी के विचार और अन्य संवैधानिक विशेषज्ञ शामिल हैं। वे राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय मूल्यों के मिश्रण को दर्शाते हैं।
  • निदेशात्मक प्रकृति (Directive Nature) – ये कर्तव्य नागरिकों के व्यवहार और आचरण का मार्गदर्शन करते हैं और एक जिम्मेदार और कानून का पालन करने वाले समाज के निर्माण के लिए नैतिक दिशाबोध के रूप में कार्य करते हैं।
  • भारतीय मूल्यों का संहिताकरण (Codification of Indian Values) – ये उन मूल्यों का उल्लेख करते हैं जो भारतीय परंपराओं और प्रथाओं का हिस्सा रहे हैं। इस प्रकार, ये अनिवार्य रूप से भारतीय जीवन शैली के अभिन्न कार्यों का संहिताकरण हैं।
  • नैतिक और नागरिक कर्तव्य (Moral and Civic Duty) – इनमें से कुछ नैतिक कर्तव्य हैं जैसे राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम के महान आदर्शों को संजोना, जबकि अन्य नागरिक कर्तव्य हैं जैसे संविधान का सम्मान करना।

मौलिक कर्तव्य नागरिकों में जवाबदेहिता, देशभक्ति और सामाजिक सद्भाव की भावना पैदा करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। उनके महत्त्व को रेखांकित करने वाले कुछ बिंदु इस प्रकार हैं:

  • नागरिक चेतना को बढ़ावा देना (Promotes Civic Consciousness): ये कर्तव्य नागरिकों में राष्ट्र और समाज के प्रति नागरिक चेतना और जवाबदेही की भावना पैदा करते हैं। उदाहरण के लिए, ये उन्हें संविधान में निहित मूल्यों को बनाए रखने के उनके दायित्वों का स्मरण कराते हैं।
  • शिक्षा और संस्कृति को बढ़ावा देना (Educational and Cultural Promotion): कुछ मौलिक कर्तव्य शिक्षा, वैज्ञानिक दृष्टिकोण और वैज्ञानिक ज्ञान के विकास के महत्त्व पर बल देते हैं, साथ ही साथ भारत की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत को भी संजोते हैं।
  • अधिकारों के साथ सामंजस्य (Harmonization with Rights): ये कर्तव्य संविधान में निहित मौलिक अधिकारों के पूरक हैं। यद्यपि मौलिक अधिकार नागरिकों को कुछ प्राप्त करने का अधिकार देते हैं, मौलिक कर्तव्य उन्हें समाज और राष्ट्र के प्रति उनके पारस्परिक दायित्वों की स्मरण कराते हैं।
  • लोगों की भागीदारी को बढ़ावा देना (Promotes People’s Participation): ये नागरिकों में यह भावना पैदा करते हैं कि वे केवल दर्शक नहीं बल्कि राष्ट्रीय लक्ष्यों को प्राप्त करने में सक्रिय भागीदार हैं।
  • राष्ट्रीय एकता और अखंडता का संरक्षण (Preservation of National Unity and Integrity): ये कर्तव्य संविधान के आदर्शों का सम्मान करने और व्यक्तिगत हितों से परे देश के कल्याण के लिए एक साझा प्रतिबद्धता को बढ़ावा देने के महत्त्व पर बल देते हैं।
  • नैतिक और सदाचार मूल्यों का समावेश (Inculcation of Moral and Ethical Values): ये कर्तव्य ईमानदारी, सत्यनिष्ठा और दूसरों के सम्मान को बढ़ावा देकर नागरिकों में नैतिक और सदाचार मूल्यों के विकास को प्रोत्साहित करते हैं।
  • लोकतांत्रिक सिद्धांतों को बढ़ावा देना (Promotes Democratic Principles): ये कर्तव्य नागरिक जुड़ाव और जिम्मेदार नागरिकता के माध्यम से लोकतंत्र के सिद्धांतों को सुदृढ़ करते हैं, जो एक जीवंत लोकतंत्र के कामकाज के लिए आवश्यक हैं।
  • सामाजिक कल्याण को बढ़ावा देना (Promotes Social Welfare): ये कर्तव्य नागरिकों को सद्भाव और समान भाईचारे की भावना को बढ़ावा देने के लिए प्रोत्साहित करते हैं, जिससे सामाजिक सद्भाव और समावेशिता को बढ़ावा मिलता है।
  • मौलिक अधिकारों के पूरक (Complements Fundamental Rights): यद्यपि मौलिक अधिकार व्यक्तियों को सशक्त बनाते हैं, मौलिक कर्तव्य नागरिकों को समाज और साथी नागरिकों के प्रति उनकी जिम्मेदारियों की याद दिलाते हैं। वे अधिकारों और जिम्मेदारियों के बीच संतुलन स्थापित करते हैं, यह सुनिश्चित करते हुए कि व्यक्तिगत स्वतंत्रता का प्रयोग जिम्मेदारी से किया जाए।
  • कानूनी और संवैधानिक ढांचा (Legal and Constitutional Framework): ये कर्तव्य विधायकों और नीति निर्माताओं के लिए समाज की बेहतरी के लिए कानून और नीतियां बनाने में मार्गदर्शक सिद्धांतों के रूप में काम करते हैं।
  • न्यायपालिका की सहायता (Aids Judiciary): जैसा कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा निर्णय दिया गया है, किसी भी कानून की संवैधानिकता का निर्धारण करते समय, अगर न्यायपालिका को यह महसूस होता है कि विचाराधीन कानून किसी मौलिक कर्तव्य को लागू करने का प्रयास करता है, तो वह ऐसे कानून को अनुच्छेद 14 (कानून के समक्ष समानता) या अनुच्छेद 19 (छह स्वतंत्रताएं) के संबंध में ‘उचित’ मान सकती है। Thus, वे न्यायपालिका को किसी कानून की संवैधानिक वैधता की जांच और निर्धारित करने में सहायता करते हैं।
  • वैश्विक मान्यता (Global Recognition): मौलिक कर्तव्यों को शामिल करने से वैश्विक पटल पर भारत की स्थिति मजबूत होती है क्योंकि यह लोकतांत्रिक मूल्यों और संवैधानिक सिद्धांतों के प्रति उसके नागरिकों के समर्पण को दर्शाता है।
  • श्री रंगनाथ मिश्रा बनाम भारत संघ (2003): इस मामले में, उच्चतम न्यायालय ने कहा कि मौलिक कर्तव्यों को न केवल कानूनी प्रतिबंधों के माध्यम से बल्कि सामाजिक प्रतिबंधों के माध्यम से भी आदरपूर्वक बनाए रखा जाना चाहिए। इसके अलावा, माननीय न्यायालय ने मौलिक कर्तव्यों के बारे में जागरूकता के व्यापक प्रसार के संबंध में न्यायमूर्ति जे.एस. वर्मा समिति की सिफारिशों के कार्यान्वयन का निर्देश दिया।
  • एम्स छात्र संघ बनाम एम्स (AIIMS Students Union v. AIIMS 2001): उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि मौलिक कर्तव्यों का महत्त्व मौलिक अधिकारों के समान है। माननीय न्यायालय ने देखा कि दोनों को ‘मौलिक’ के रूप में नामित किया जाना उनके समान महत्त्व को रेखांकित करता है।

मौलिक अधिकारों और मौलिक कर्तव्यों के बीच के संबंध को सहसंबंधी और पूरक के रूप में सारांशित किया जा सकता है। नागरिकों को अपने मौलिक अधिकारों का उपभोग करने के लिए सक्षम वातावरण बनाने के लिए अन्य नागरिकों द्वारा मौलिक कर्तव्यों का पालन करना आवश्यक है। इसी प्रकार, अधिकार कर्तव्यों के अग्रदूत होते हैं, और अधिकारों की पूर्ति के बिना, व्यक्ति अपने कर्तव्यों का पालन नहीं कर सकते। उदाहरण के लिए, शिक्षा के अधिकार की पूर्ति के बिना, महिलाओं की गरिमा का सम्मान करने के कर्तव्य की अपेक्षा करना कठिन है।

मौलिक अधिकारों और मौलिक कर्तव्यों के बीच अविभाज्य संबंध को निम्नानुसार दर्शाया गया है:

मौलिक अधिकार (Fundamental Rights)मौलिक कर्तव्य (Fundamental Duties)
अनुच्छेद 19 वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का प्रावधान करता है। यद्यपि,इसके द्वारा यह भी प्रमाणित किया जाता है कि राज्य अन्य बातों के साथ-साथ भारत की संप्रभुता, अखंडता और राज्य की सुरक्षा के आधार पर इस अधिकार पर युक्तियुक्त प्रतिबंध लगा सकता है।अनुच्छेद 51A(c) नागरिकों पर “भारत की संप्रभुता, एकता और अखंडता को बनाए रखने और उनकी रक्षा करने” का मौलिक कर्तव्य का प्रावधान करता है।
अनुच्छेद 21 में महिलाओं के साथ शालीनता और सम्मान के साथ व्यवहार किए जाने के अधिकार को शामिल किया गया है।अनुच्छेद 51A(e) नागरिकों को “महिलाओं की गरिमा के लिए अपमानजनक प्रथाओं का त्याग करने” का निर्देश देता है।
अनुच्छेद 21(A) 6-14 वर्ष की आयु के सभी बच्चों को निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा की गारंटी देता है।अनुच्छेद 51A(k) नागरिकों से “अपने 6-14 वर्ष की आयु के बीच के बच्चे/संरक्षक को शिक्षा के अवसर प्रदान करने” के लिए निर्देश देता है।
अनुच्छेद 23(2) में प्रावधान है कि राज्य सैन्य सेवा जैसी सार्वजनिक उद्देश्यों के लिए अनिवार्य सेवा लागू कर सकता है।अनुच्छेद 51A(d) नागरिकों से “देश की रक्षा करने और राष्ट्रीय सेवा प्रदान करने के लिए आह्वान किए जाने पर ऐसा करने” के लिए निर्देश देता है।

राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांत (DPSPs) भले ही न्यायिक रूप से लागू करने योग्य नहीं हैं, फिर भी वे नागरिकों द्वारा प्राप्त किए जाने वाले एक प्रकार के अधिकार का निर्माण करते हैं। इस प्रकार, DPSPs और मौलिक कर्तव्यों के बीच संबंध भी सहसंबंधी और पूरक है। इसे निम्न उदाहरणों द्वारा दर्शाया गया है:

राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांत (DPSPs)मौलिक कर्तव्य (Fundamental Duties)
अनुच्छेद 48 (A) राज्य को “पर्यावरण की रक्षा और सुधार करने तथा वनों एवं वन्यजीवों की रक्षा करने” का प्रावधान करता है।अनुच्छेद 51A(g) नागरिकों का मौलिक कर्तव्य “वनों, वन्यजीवों आदि सहित प्राकृतिक पर्यावरण की रक्षा और सुधार करने” का निर्देश देता है।
अनुच्छेद 45 राज्य को “सभी बच्चों को 6 वर्ष की आयु पूरी होने तक उनके लिए पूर्व-प्राथमिक देखभाल और शिक्षा प्रदान करने” का निर्देश देता है।अनुच्छेद 51A(k) नागरिकों से “अपने 6-14 वर्ष की आयु के बीच के बच्चे/संरक्षक को शिक्षा के अवसर प्रदान करने” के लिए निर्देश देता है।
अनुच्छेद 49 राज्य को “राष्ट्रीय महत्त्व घोषित किए गए कलात्मक और ऐतिहासिक महत्त्व के स्मारकों, स्थानों और वस्तुओं की रक्षा करने” का निर्देश देता है।अनुच्छेद 51A(f) नागरिकों को “देश की समग्र संस्कृति की समृद्ध विरासत को महत्त्व देने और संरक्षित करने” का निर्देश देता है।

मौलिक कर्तव्यों और संविधान की प्रस्तावना के बीच का संबंध भारतीय संविधान में निहित आदर्शों और आकांक्षाओं को परस्पर मजबूत करने में निहित है। यद्यपि प्रस्तावना संविधान के उद्देश्यों और मार्गदर्शक सिद्धांतों को रेखांकित करता है, मौलिक कर्तव्य इन उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए नागरिकों की जिम्मेदारियों को स्पष्ट करते हैं।

उनके परस्पर सहसंबंधी और सुदृढ़ करने वाले संबंध को निम्न प्रकार से देखा जा सकता है:

मौलिक कर्तव्य (Fundamental Duties) संविधान की प्रस्तावना (Preamble) 
अनुच्छेद 51 A(a) संविधान का पालन करने तथा इसके साथ ही संविधान के आदर्शों एवं संस्थाओं, राष्ट्रीय ध्वज और राष्ट्रगान का सम्मान करने का उल्लेख है।प्रस्तावना में संविधान के आदर्शों को ‘न्याय’, ‘स्वतंत्रता’, ‘समानता’ और ‘बंधुता’ के रूप में उल्लेखित किया गया है। इसलिए, हमें अपने प्रत्येक शब्द, कार्य और विचार में संविधान के इन आदर्शों को याद रखना और उनका पालन करना चाहिए।
अनुच्छेद 51A(c) “भारत की संप्रभुता, एकता और अखंडता को बनाए रखने और उनकी रक्षा करने” का उल्लेख करता है।इन मूलभूत मूल्यों का उल्लेख भारत की प्रस्तावना में किया गया है।
अनुच्छेद 51A(e) “धार्मिक, भाषाई और क्षेत्रीय या वर्गीय विविधताओं से ऊपर भारत के सभी लोगों के बीच सद्भाव और समान भाईचारे की भावना को बढ़ावा देने” का उल्लेख करता है।. संविधान की प्रस्तावना में ‘बंधुता’ का उल्लेख किया गया है जो व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता एवं अखंडता का आश्वासन देता है। 
  • न्यायिक प्रवर्तनीय न होना (Non-Justiciability): मौलिक कर्तव्यों के न्यायिक प्रवर्तनीय न होने पर सवाल उठाए जाते हैं, क्योंकि इनका पालन न करने पर कोई कानूनी दंड नहीं दिया जाता है, जिससे उनकी प्रभावशीलता और उपयोगिता पर सवाल खड़े होते हैं।
  • अपूर्ण सूची (Non-Exhaustive): मौलिक कर्तव्यों की सूची पूर्ण नहीं है क्योंकि इसमें कुछ बहुत महत्त्वपूर्ण कर्तव्यों को शामिल नहीं किया गया है, जैसे मतदान करना, करों का भुगतान करना आदि।
  • अस्पष्टता और अनेकार्थता (Subjectivity and Ambiguity): कुछ आलोचकों का तर्क है कि मौलिक कर्तव्यों को व्यक्त करने के लिए प्रयोग की जाने वाली भाषा अस्पष्ट, व्यक्तिपरक और अनेकार्थी है, जिससे इन कर्तव्यों के सटीक परिधि और प्रकृति को निर्धारित करना चुनौतीपूर्ण हो जाता है। उदाहरण के लिए, ‘उत्तम आदर्शों’, ‘समग्र संस्कृति’ आदि वाक्यांशों के अलग-अलग अर्थ निकाले जा सकते हैं।
  • अधिकारों के साथ असंतुलन (Imbalance with Rights): आलोचकों का तर्क है कि जहाँ संविधान नागरिकों को मौलिक अधिकारों की गारंटी देता है, वहीं मौलिक कर्तव्यों को थोपना अधिकारों के साथ असंतुलन पैदा करता है। उनका तर्क है कि नागरिकों को बिना किसी संगत कर्तव्य के लागू करने योग्य अधिकार होने चाहिए, क्योंकि कर्तव्य व्यक्तिगत स्वायत्तता और स्वतंत्रता का उल्लंघन कर सकते हैं।
  • अप्रभावी प्रचार और जागरूकता (Inadequate Promotion and Awareness): कई नागरिक अपने कर्तव्यों से अनजान होते हैं या उन्हें अपने अधिकारों के लिए गौण समझते हैं, जो नागरिक दायित्व की भावना को बढ़ावा देने में उनकी प्रभावशीलता को कमजोर करता है।
  • घटता महत्त्व (Reduce Significance): मौलिक कर्तव्यों को संविधान के भाग चार के परिशिष्ट के रूप में शामिल करना उनके मूल्य और महत्त्व को कम करने के रूप में देखा जाता है। आलोचकों का तर्क है कि उन्हें मौलिक अधिकारों के समकक्ष रखने के लिए उन्हें भाग तीन के बाद जोड़ा जाना चाहिए था।

आलोचनाओं के बावजूद, भारतीय संविधान के मौलिक कर्तव्य नागरिक चेतना, देशभक्ति और सामाजिक सद्भाव की भावना को बढ़ावा देने के लिए अभिन्न अंग हैं। नागरिकों को जिम्मेदार नागरिकता की ओर मार्गदर्शन देकर, वे राष्ट्र के सामूहिक कल्याण और प्रगति में योगदान करते हैं। कुल मिलाकर, वे संविधान के निर्माताओं द्वारा परिकल्पित एक सौहार्दपूर्ण और लोकतांत्रिक समाज के दृष्टिकोण को पूरा करने में सहायता करते हैं।

मौलिक कर्तव्य क्या हैं?

भारतीय संविधान के मौलिक कर्तव्य उस देश के नागरिकों के लिए निर्धारित कर्तव्यों का एक समूह है।

भारतीय संविधान में कितने मौलिक कर्तव्य हैं?

भारतीय संविधान में भारतीय नागरिकों के कुल 11 मौलिक कर्तव्य हैं।

11 मौलिक कर्तव्य क्या हैं?

भारतीय नागरिकों के 11 मौलिक कर्तव्य संविधान में निहित मार्गदर्शक सिद्धांतों का एक समूह है जो व्यक्तियों को राष्ट्र के प्रति उनकी जिम्मेदारियों का स्मरण कराता है। इन कर्तव्यों में संविधान का सम्मान करना, भारत की एकता और संप्रभुता को बनाए रखना, सभी नागरिकों के बीच सद्भाव को बढ़ावा देना, पर्यावरण की रक्षा करना, वैज्ञानिक दृष्टिकोण और मानवतावाद को बढ़ावा देना तथा व्यक्तिगत एवं सामूहिक प्रयासों में उत्कृष्टता के लिए प्रयास करना आदि शामिल है।


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