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भारतीय राजव्यवस्था 

राज्यसभा के सभापति

Last updated on July 2nd, 2024 Posted on July 2, 2024 by  2380
राज्यसभा के सभापति

भारतीय संसद के ऊपरी सदन के पीठासीन अधिकारी के रूप में, राज्यसभा के सभापति भारतीय संसदीय प्रणाली में एक महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं। संसदीय नियमों और परंपराओं को बनाए रखते हुए, सभापति राज्यसभा के सुचारू संचालन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। NEXT IAS के इस लेख का उद्देश्य राज्यसभा के सभापति के बारे में विस्तार से अध्ययन करना है, जिसके अंतर्गत चुनावी प्रक्रिया, कार्यकाल, भूमिका, शक्तियाँ, कार्य, महत्त्व और अन्य संबंधित पहलू सम्मिलित हैं।

  • राज्यसभा के सभापति भारत की संसद के ऊपरी सदन – राज्यसभा के पीठासीन अधिकारी होते हैं।
  • सभापति ऊपरी सदन में व्यवस्था और शिष्टाचार बनाए रखने तथा इसके कामकाज का संचालन करने एवं यह सुनिश्चित करने के लिए उत्तरदायी होते हैं कि विधायी प्रक्रिया सुचारू रूप से संचालित हो।
नोट: भारत के उपराष्ट्रपति, राज्यसभा के पदेन सभापति होते हैं।          
– संसद के पीठासीन अधिकारी उन अधिकारियों का एक समूह है जो संसद के सदनों (भारत के मामले में लोकसभा और राज्यसभा) की कार्यवाही की देखरेख और विनियमन की रूपरेखा तय करते हैं।
– वे संसदीय नियमों, व्यवस्था, बहस का प्रबंधन करने और संसद के अपने-अपने सदनों के भीतर स्थापित प्रक्रियाओं के अनुसार विधायी प्रक्रिया का संचालन करने के लिए उत्तरदायी होते हैं।
– कुल मिलाकर, उनकी भूमिका यह सुनिश्चित करना है कि विधायी निकाय सुचारू रूप एवं कुशलता से कार्य कर सकें।
  • भारत के उपराष्ट्रपति अपनी पदेन क्षमता में राज्यसभा के सभापति के रूप में कार्य करते हैं।
    • इस प्रकार, राज्यसभा के सभापति के लिए कोई अलग चुनाव नहीं होता है।
  • भारत के उपराष्ट्रपति के लिए चुनाव प्रक्रिया पर हमारा विस्तृत लेख पढ़ें।
नोट: लोकसभा के अध्यक्ष के विपरीत, जो सदन का सदस्य होता है, राज्यसभा का सभापति सदन का सदस्य नहीं होता है।
  • राज्यसभा के सभापति, अपना पद ग्रहण करते समय, विशेष रूप से सभापति के पद के लिए कोई अलग शपथ या प्रतिज्ञान नहीं लेते हैं।
    • यद्यपि, भारत के उपराष्ट्रपति के रूप में, वह भारत के राष्ट्रपति द्वारा प्रशासित पद की शपथ लेते हैं।
  • भारत के उपराष्ट्रपति के रूप में उनकी शपथ, राज्यसभा के सभापति के रूप में उनकी भूमिका के लिए पर्याप्त है।
  • राज्यसभा के सभापति का कार्यकाल भारत के उपराष्ट्रपति के कार्यकाल के साथ समाप्त होता है।
  • उपराष्ट्रपति और इसलिए राज्यसभा के सभापति का सामान्य कार्यकाल 5 वर्ष का होता है।
  • उपराष्ट्रपति को पद के लिए फिर से चुना जा सकता है और इसलिए वह राज्यसभा के सभापति के रूप में कई कार्यकाल तक सेवा कर सकते हैं।
  • राज्यसभा के सभापति को उनके पद से तभी हटाया जा सकता है जब उन्हें भारत के उपराष्ट्रपति के पद से हटाया जाए।
  • भारत के उपराष्ट्रपति/राज्यसभा के सभापति को हटाने की प्रक्रिया इस प्रकार है:
    • सभापति को हटाने का प्रस्ताव केवल राज्यसभा में ही प्रस्तुत किया जा सकता है, लोकसभा में नहीं।
    • ऐसा प्रस्ताव 14 दिन की अग्रिम सूचना देने के बाद ही पेश किया जा सकता है।
    • हटाने का प्रस्ताव राज्यसभा में प्रभावी बहुमत (अर्थात रिक्त सीटों को छोड़कर राज्यसभा के तत्कालीन सदस्यों के बहुमत) से पारित होना चाहिए और लोकसभा द्वारा साधारण बहुमत से उस पर सहमति होनी चाहिए।
  • जब राज्यसभा के सभापति को हटाने का प्रस्ताव विचाराधीन हो, तो वह सदन की बैठक की अध्यक्षता नहीं कर सकते।
    • हालाँकि, वह सदन में उपस्थित रह सकते है, बोल सकते हैं तथा इसकी कार्यवाही में भाग भी ले सकते हैं, लेकिन पहली बार में भी वोट नहीं दे सकते।
      • यह ध्यान देने योग्य है कि, राज्य सभा के सभापति के मामले के विपरीत, लोक सभा के अध्यक्ष प्रथम दृष्टया मतदान कर सकते हैं, यद्यपि मतों की बराबरी की स्थिति में नहीं, जब सदन में उनके पदच्युति का प्रस्ताव विचाराधीन हो।
नोट: लोक सभा के अध्यक्ष और राज्य सभा के सभापति, अपने-अपने सदनों की बैठक की अध्यक्षता करते समय प्रथम दृष्टया मतदान नहीं कर सकते। दोनों मतों की बराबरी की स्थिति में ही मतदान कर सकते हैं।
  • राज्य सभा का सभापति भारत के उपराष्ट्रपति के पद से त्यागपत्र देकर किसी भी समय अपने पद से त्यागपत्र दे सकते हैं।
  • भारत के उपराष्ट्रपति भारत के राष्ट्रपति को त्यागपत्र देकर किसी भी समय अपने पद से त्यागपत्र दे सकते हैं।
  • राज्य सभा के सभापति के वेतन और भत्ते भारत की संसद द्वारा तय किए जाते हैं।
  • वे भारत की संचित निधि पर भारित होते हैं, इसलिए भारत की संसद के वार्षिक मतदान के अधीन नहीं होते हैं।
नोट: किसी भी अवधि के दौरान जब उपराष्ट्रपति राष्ट्रपति के रूप में कार्य करते हैं या राष्ट्रपति के कार्यों का निर्वहन करता है, तो वह राज्य सभा के सभापति को देय वेतन या भत्ते का हकदार नहीं होते हैं, बल्कि भारत के राष्ट्रपति के वेतन और भत्ते का हकदार होते हैं।
  • पीठासीन अधिकारी के रूप में, राज्य सभा के सभापति की शक्तियाँ और कार्य लोकसभा के अध्यक्ष के समान हैं।
  • उनकी प्राथमिक जिम्मेदारी सदन के कामकाज के संचालन और इसकी कार्यवाही को विनियमित करने के लिए सदन में व्यवस्था और शिष्टाचार बनाए रखना है।
  • यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि किसी भी अवधि के दौरान जब भारत का उपराष्ट्रपति राष्ट्रपति के रूप में कार्य करता है या राष्ट्रपति के कार्यों का निर्वहन करता है, तो वह राज्य सभा के सभापति के पद के कर्तव्यों का पालन नहीं करता है।
    • ऐसी अवधि के दौरान, राज्यसभा के सभापति के पद के कर्तव्यों का निर्वहन राज्यसभा के उपसभापति द्वारा किया जाता है।
नोट: लोकसभा के अध्यक्ष के पास दो विशेष शक्तियाँ होती हैं जो राज्यसभा के सभापति के पास नहीं हैं:
– लोकसभा के अध्यक्ष के द्वारा यह तय किया जाता हैं कि कोई विधेयक धन विधेयक है या नहीं और इस प्रश्न पर उनका निर्णय अंतिम होता है। सभापति के पास यह शक्ति नहीं होती है।
– लोकसभा के अध्यक्ष द्वारा संसद के दोनों सदनों की संयुक्त बैठक की अध्यक्षता की जाती हैं। सभापति दोनों सदनों की संयुक्त बैठक की अध्यक्षता नहीं कर सकते, भले ही वे ऐसी बैठक में उपस्थित हों।

राज्यसभा के सभापति का पद भारतीय राजनीतिक व्यवस्था में संवैधानिक रूप से महत्त्वपूर्ण होता है। राज्य सभा के सभापति का प्रमुख महत्त्व इस प्रकार देखा जा सकता है:

  • अंतराल से बचना (Avoiding Interregnum): राज्य सभा का सभापति, भारत के उपराष्ट्रपति के रूप में, राष्ट्रपति के कार्यालय में जब भी कोई रिक्ति होती है, या जब राष्ट्रपति अपने कार्यों का निर्वहन करने में असमर्थ होते हैं तो वह भारत के राष्ट्रपति के कार्यों का निर्वहन करते हैं।
    • इस प्रकार, राज्य सभा के सभापति / भारत के उपराष्ट्रपति भारत के राष्ट्रपति के अनुपस्थिति में कार्यालय में होने वाले अंतराल से सुरक्षा प्रदान करता है।
  • सदन का व्यवस्थित संचालन (Orderly Functioning of House): सभापति कार्यवाही का व्यवस्थित संचालन, शिष्टाचार और सदन के नियमों को बनाए रखने को सुनिश्चित करता है।
  • निष्पक्षता (Impartiality): सभापति से सदन के कामकाज का संचालन करते समय निष्पक्षता और पारदर्शिता बनाए रखने की अपेक्षा की जाती है, जैसे कि सभी सदस्यों को अपने विचार व्यक्त करने का समान अवसर देना।
  • निर्णय लेना (Decision-Making): वह संसदीय प्रक्रिया, नियमों की व्याख्या और सदस्यों के बीच अनुशासन बनाए रखने के मामलों पर महत्त्वपूर्ण निर्णय लेता है।
  • संसदीय विशेषाधिकारों का संरक्षक (Custodian of Parliamentary Privileges): सभापति सदस्यों के विशेषाधिकारों और सदन की गरिमा की रक्षा करता है, तथा यह सुनिश्चित करता है कि संसदीय कार्यवाही सम्मान और निष्ठा के साथ संचालित हो।
  • सदन और सरकार के बीच सेतु (Bridge between House and Government): वह राज्य सभा की सामूहिक आवाज़ का प्रतिनिधित्व करता है, और सदस्यों और सरकार के बीच सेतु का काम करता है, और यह सुनिश्चित करता है कि सदस्यों की चिंताओं का समाधान किया जाए।
  • अधिकार का प्रतीक (Symbol of Authority): सभापति राज्य सभा के अधिकार का प्रतीक है और संसदीय संस्था की पवित्रता को बनाए रखने के लिए जिम्मेदार है।

राज्यसभा का सभापति, राष्ट्र के दूसरे सर्वोच्च संवैधानिक प्राधिकारी के रूप में, देश के लोकतांत्रिक ढांचे में एक महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। सीमित कार्य सौंपे जाने के बावजूद, वह विधायिका के सुचारू संचालन के साथ-साथ भारतीय राज्य की राजनीतिक निरंतरता को बनाए रखने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

राज्यसभा के सभापति कौन हैं?

श्री जगदीप धनखड़ राज्यसभा के सभापति हैं।

राज्यसभा के पदेन सभापति कौन हैं?

भारत के उपराष्ट्रपति राज्यसभा के पदेन सभापति होते हैं।

सामान्य अध्ययन-2
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