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भारतीय राजव्यवस्था 

भारत में स्थानीय स्वशासन

Last updated on July 9th, 2024 Posted on July 9, 2024 by  4552
भारत में स्थानीय स्वशासन

भारत में स्थानीय स्वशासन एक जीवंत भारतीय लोकतंत्र की नींव है। निर्णय लेने और कार्यान्वयन में जमीनी स्तर पर भागीदारी को सक्षम बनाकर, भारत में स्थानीय स्वशासन ने प्रतिनिधि लोकतंत्र को भागीदारी लोकतंत्र में बदलने में सहायता की है। इस लेख का उद्देश्य भारत में स्थानीय स्वशासन (LSG), इसके घटकों, जिसमें पंचायती राज संस्थाएं (PRIs) और शहरी स्थानीय निकाय (ULBs), भूमिका, महत्त्व, सामने आने वाली चुनौतियाँ एवं संबंधित तथ्यों का विस्तृत अध्ययन करना है।

  • भारत में स्थानीय स्वशासन, प्रशासन की एक प्रणाली है जहाँ लोगों द्वारा प्रत्यक्ष रूप से चुनी गई स्थानीय संस्थाएं गाँवों, कस्बों या शहरों जैसी स्थानीय समुदायों के मामलों का प्रबंधन करती हैं।
  • भारत में स्थानीय स्वशासन को केंद्र सरकार और राज्य सरकार के नीचे तीसरे स्तर की सरकार के रूप में स्थापित किया गया है।
  • इसका उद्देश्य स्थानीय स्तर पर शक्तियों और संसाधनों को हस्तांतरित करना है ताकि स्थानीय लोगों को उनके दैनिक जीवन को प्रभावित करने वाले मामलों में अपनी बात कहने का अधिकार मिल सके।

भारत में, स्थानीय स्वशासन की संरचना में दो प्रकार की संस्थाएं/निकाय शामिल हैं – पंचायती राज संस्थाएं (PRIs) और शहरी स्थानीय निकाय (ULBs)।

  • पंचायती राज संस्थाएं (PRIs) भारत में ‘ग्रामीण स्थानीय स्वशासन’ की प्रणाली को संदर्भित करती हैं, अर्थात् ग्रामीण क्षेत्रों की शासन प्रणाली जो लोगों द्वारा चुने गए प्रतिनिधियों के माध्यम से संचालित होती है।
  • इन्हें 1992 के 73वें संविधान संशोधन अधिनियम द्वारा सभी राज्यों में ग्रामीण क्षेत्रों में तीसरे स्तर की सरकार के रूप में स्थापित किया गया है।
  • स्थानीय स्तर पर लोकतंत्र बनाने का लक्ष्य रखते हुए, ये संस्थाएँ सुनिश्चित करती हैं कि स्थानीय आबादी सीधे निर्णय लेने की प्रक्रिया में भाग ले।

पंचायती राज संस्थाओं (PRIs) पर हमारे विस्तृत लेख को पढ़ें।

  • शहरी स्थानीय निकाय (ULB), जिन्हें नगरपालिकाओं के रूप में भी जाना जाता है, भारत में ‘शहरी स्थानीय स्वशासन’ की प्रणाली को संदर्भित करते हैं, अर्थात् शहरी क्षेत्रों की शासन प्रणाली जो लोगों द्वारा चुने गए प्रतिनिधियों के माध्यम से होती है।
  • इन्हें 1992 के 74वें संविधान संशोधन अधिनियम द्वारा सभी राज्यों में शहरी क्षेत्रों में तीसरे स्तर की सरकार के रूप में स्थापित किया गया है।
  • यह प्रणाली सुनिश्चित करती है कि शहरी आबादी प्रत्यक्ष रूप से निर्णय लेने की प्रक्रिया में भागीदार हों, जिससे शहरी विकास पहलों की प्रभावशीलता और जवाबदेही बढ़ावा मिल सकें।

सरकार के तीसरे स्तर के रूप में, भारत में स्थानीय स्वशासन का कई तरह से महत्त्व है:

  • भागीदारी लोकतंत्र (Participatory Democracy): स्थानीय स्वशासन निर्णय लेने की प्रक्रियाओं में नागरिक भागीदारी को बढ़ावा देता है, तथा यह सुनिश्चित करता है कि शासन अधिक समावेशी और स्थानीय जरूरतों एवं प्राथमिकताओं का प्रतिनिधि हो।
  • नागरिक भागीदारी (Citizen Participation): यह निवासियों के बीच स्वामित्व और नागरिक जुड़ाव की भावना को बढ़ावा देता है, उन्हें निर्णय लेने की प्रक्रियाओं में सक्रिय रूप से भाग लेने के लिए प्रोत्साहित करता है।
  • जवाबदेही और पारदर्शिता (Accountability and Transparency): स्थानीय स्तर पर चुने गए प्रतिनिधि समुदाय के लिए अधिक सुलभ होते हैं, जिससे शासन में जवाबदेही और पारदर्शिता बढ़ती है।
  • उत्तरदायी शासन (Responsive Governance): स्थानीय निकाय अपने क्षेत्र की विशिष्ट समस्याओं और चुनौतियों का तेजी से जवाब दे सकते हैं, जिससे सेवा वितरण अधिक प्रभावी और कुशल हो जाता है।
  • बेहतर दक्षता (Improved Efficiency): स्थानीय निकाय प्राय: स्थानीय आवश्यकताओं और चुनौतियों की गहरी समझ रखते हैं, जिससे संसाधनों का अधिक कुशल आवंटन होता है।
  • सशक्तिकरण और क्षमता निर्माण (Empowerment and Capacity Building): विकेंद्रीकरण स्थानीय समुदायों को सशक्त बनाता है, उन्हें संसाधनों का प्रबंधन, विकास गतिविधियों की योजना बनाने और संघर्षों के समाधान की क्षमता को मजबूत करता है।
  • समावेशिता (Inclusiveness): स्थानीय शासन हाशिए पर रहने वाले समुदायों जैसे एससी, एसटी, महिलाओं आदि के लिए अपनी आवाज सुनने और उनकी जरूरतों को पूरा करने के लिए एक मंच प्रदान करता है।

भारत में स्थानीय स्वशासन से संबंधित प्रमुख समस्याएं निम्नलिखित हैं:

  • अपर्याप्त वित्तीय संसाधन (Inadequate Financial Resource): कर लगाने की सीमित शक्तियाँ और राज्य से बहुत कम अनुदान का अर्थ है कि स्थानीय निकायों के पास अपर्याप्त वित्त होता है। यह उनके विकास परियोजनाओं को शुरू करने और आवश्यक सेवाएं प्रदान करने की क्षमता को सीमित करता है।
  • कार्यप्रणाली का अपर्याप्त हस्तांतरण (Inadequate Devolution of Functions): अधिकांश राज्यों ने स्थानीय निकायों को कार्य सौंपने में अनिच्छा दिखाई है।
  • नौकरशाही का अत्यधिक नियंत्रण (Excessive Control by Bureaucracy): कुछ राज्यों में, स्थानीय निकायों को सरकारी कार्यालयों के अधीनस्थ स्थिति में रखा गया है। इससे उनके निर्णय लेने और कार्यान्वयन की क्षमता बाधित होती है।
  • वित्त के व्यय की निश्चित प्रकृति (Tied Nature of Funds): स्थानीय निकायों द्वारा प्रबंधित 90% से अधिक धनराशि कुछ योजनाओं में ही व्यय होती है, जिससे अन्य सार्थक योजना प्रक्रियाओं के लिए वित्तीय संसाधनों की कमी पड़ जाती है।
  • कार्यात्मक अतिव्यापन (Functional Overlap): अन्य सरकारी एजेंसियों जैसे ब्लॉक कार्यालयों, अर्ध-राज्य एजेंसियों आदि के साथ कार्यात्मक अतिव्यापन हैं। इससे भ्रम और संघर्ष उत्पन्न होते हैं।
  • क्षमता की कमी (Capacity Constraints): स्थानीय निकाय प्राय: प्रशिक्षित कर्मियों और संसाधनों की कमी का सामना करते हैं, जिससे उनकी प्रभावी कार्यप्रणाली बाधित होती है।
    • अधिकांश ULBs सदस्यों के अशिक्षित या अर्ध-शिक्षित होने और अपने कर्तव्यों एवं जिम्मेदारियों के बारे में कम जानकारी रखने से भी उनकी प्रभावी कार्यप्रणाली बाधित होती है।
  • राजनीतिक हस्तक्षेप (Political Interference): उच्च स्तर की सरकार द्वारा अत्यधिक हस्तक्षेप स्थानीय स्वशासी निकायों की स्वायत्तता को कमजोर कर सकता है।

भारत में स्थानीय स्वशासन को मजबूत करने के लिए निम्नलिखित कदम उठाए जा सकते हैं:

  • स्थानीय निकायों की वित्तीय संसाधनों को बढ़ाने और उन्हें स्वतंत्र बनाने के लिए, उन्हें स्वतंत्र वित्तीय स्रोत दिए जाने चाहिए। उदाहरण के लिए, स्थानीय कर लगाने की शक्ति।
  • राज्यों को स्थानीय निकायों को अधिक कार्य सौंपने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।
  • PRIs और अन्य सरकारी एजेंसियों के बीच कार्यों का स्पष्ट विभाजन होना चाहिए।
  • स्थानीय निकायों के सदस्यों को उनकी क्षमताओं को बढ़ाने के लिए प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए।
  • 15वें वित्त आयोग की सिफारिश के अनुसार, स्थानीय निकायों की जवाबदेही बढ़ाने के लिए उनकी ऑनलाइन ऑडिटिंग होनी चाहिए।
  • राज्यों के बीच प्रतिस्पर्धी संघवाद की अवधारणा को सरकार के तीसरे स्तर (स्थानीय निकायों) तक विस्तारित किया जाना चाहिए। इससे उनके प्रदर्शन में सुधार करने में मदद मिलेगी।

स्थानीय समुदायों को सशक्त बनाकर एवं उनके अपने मामलों को प्रबंधित करने की क्षमता को बढ़ाकर, भारत में स्थानीय स्वशासन ने स्थानीय स्तर के लोकतंत्र को मजबूत करने में सहायता की है। यद्यपि, कई चुनौतियाँ इसके वास्तविक संभावनाओं की प्राप्ति में बाधा बनी हुई हैं। यह सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक कदम उठाए जाने चाहिए कि शासन वास्तव में लोगों का, लोगों द्वारा और लोगों के लिए हो।

भारत में स्थानीय स्वशासन के पिता कौन हैं?

भारत में स्थानीय स्वशासन के पिता लॉर्ड रिपन हैं।

भारत में पहली बार स्थानीय स्वशासन की शुरुआत किसने की थी?

लॉर्ड रिपन ने 1882 में भारत में स्थानीय स्वशासन की शुरुआत की थी।

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