पाठ्यक्रम: GS1/ सामाजिक मुद्दे, जनसंख्या
सन्दर्भ
- आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री ने दक्षिणी राज्यों में घटती प्रजनन दर की ओर संकेत किया, जो घटकर 1.6 हो गई है – जो राष्ट्रीय औसत 2.1 से काफी नीचे है।
दक्षिणी भारत की जनसंख्या में रुझान
- घटती प्रजनन दर: आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु और केरल जैसे दक्षिणी भारतीय राज्य पहले ही प्रतिस्थापन-स्तर प्रजनन दर (प्रति महिला 2.1 बच्चे) तक पहुँच चुके हैं या उसके करीब हैं। उदाहरण के लिए:
- आंध्र प्रदेश ने 2004 में यह उपलब्धि प्राप्त की।
- केरल 1988 में ही इस स्तर पर पहुंच गया था।
- इन राज्यों में उत्तरी भारत की तुलना में प्रजनन दर काफी कम है, जिससे जनसंख्या वृद्धि धीमी हो रही है।
वृद्ध जनसंख्या: कम प्रजनन दर और बढ़ती जीवन प्रत्याशा के साथ, दक्षिणी भारत में जनसंख्या तेजी से वृद्ध हो रही है:
- केरल की 60+ जनसँख्या 2011 में 13% से बढ़कर 2036 तक 23% होने का अनुमान है।
- आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु में भी इसी तरह का जनसांख्यिकीय बदलाव देखने को मिल रहा है, जिससे बुजुर्ग निवासियों का अनुपात बढ़ रहा है।
- जनसंख्या वृद्धि में योगदान: अनुमान है कि 2011 से 2036 तक भारत की कुल जनसंख्या वृद्धि में दक्षिणी राज्यों का योगदान केवल 9% होगा। इसके विपरीत, उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे उत्तरी राज्यों का भारत की भविष्य की जनसंख्या वृद्धि में बहुत बड़ा हिस्सा होगा।
- आंतरिक प्रवास और कार्यबल: घटती जन्म दर और घटती कामकाजी आयु वाली जनसख्या के कारण, दक्षिणी राज्य श्रम की कमी को पूरा करने तथा आर्थिक विकास को बनाए रखने के लिए उत्तरी भारत से आने वाले प्रवासियों पर अधिक निर्भर हो रहे हैं।
- राजनीतिक प्रतिनिधित्व पर प्रभाव: दक्षिणी भारत में धीमी जनसंख्या वृद्धि राजनीतिक प्रतिनिधित्व के बारे में चिंताएँ उत्पन्न करती है। निर्वाचन क्षेत्रों के परिसीमन के बाद, दक्षिणी राज्य कुछ संसदीय सीटें खो सकते हैं, जबकि उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे अधिक जनसँख्या वाले उत्तरी राज्यों को प्रतिनिधित्व मिल सकता है।
- आर्थिक और स्वास्थ्य सेवा तनाव: दक्षिणी राज्यों में बढ़ती वृद्ध जनसख्या से स्वास्थ्य सेवा व्यय में वृद्धि और सामाजिक सुरक्षा प्रणालियों पर और अधिक माँग बढ़ने की उम्मीद है।
जनसंख्या में गिरावट से जुड़ी चुनौतियाँ
- आर्थिक प्रभाव: वृद्ध जनसँख्या का उच्च प्रतिशत यह दर्शाता है कि राज्य को इस बढ़ती जनसँख्या की देखभाल पर अधिक खर्च करना पड़ सकता है।
- पेंशन प्रणाली और सामाजिक सुरक्षा पर दबाव बढ़ रहा है।
- देखभाल की आवश्यकता: वृद्ध जनसँख्या में वृद्धि के साथ, देखभाल करने वालों की आवश्यकता बढ़ रही है।
- परिवारों को कार्य और व्यक्तिगत जीवन के साथ देखभाल की ज़िम्मेदारियों को संतुलित करने में संघर्ष करना पड़ सकता है।
- सामाजिक अलगाव: वृद्ध वयस्कों को प्रायः सामाजिक अलगाव का सामना करना पड़ता है, विशेषकर शहरी क्षेत्रों में जहाँ पारंपरिक पारिवारिक संरचनाएँ परिवर्तित हो रही हैं।
- महिलाओं पर प्रभाव: वृद्धावस्था में गरीबी स्वाभाविक रूप से लिंग आधारित होती है, जब वृद्ध महिलाओं के विधवा होने, अकेले रहने, बिना आय के और अपनी स्वयं की कम संपत्ति होने तथा समर्थन के लिए पूरी तरह से परिवार पर निर्भर होने की संभावना अधिक होती है।
- नीति विकास: वृद्ध वयस्कों की ज़रूरतों को संबोधित करने वाली व्यापक नीतियों की आवश्यकता है, जिसमें स्वास्थ्य सेवा, आवास और सामाजिक कल्याण शामिल हैं।
- उत्तर-दक्षिण विभाजन: उत्तर प्रदेश जैसे उत्तरी राज्य, जो भारत की जनसँख्या में अधिक योगदान करते हैं, संसाधन वितरण को प्रभावित करते हुए राजनीतिक और आर्थिक फोकस बढ़ा सकते हैं।
आगे की राह
- आंतरिक प्रवास को बढ़ावा देना: दक्षिणी राज्य उत्तरी भारत से श्रमिकों को लाकर कार्यबल की कमी को कम कर सकते हैं, जहाँ कामकाजी आयु वर्ग की जनसँख्या अधिक है। यह दक्षिण में घटती युवा जनसँख्या द्वारा बनाए गए अंतर को समाप्त करने में सहायता कर सकता है।
- कार्यबल विकास: स्वचालन, उन्नत प्रौद्योगिकी और कौशल पुनः प्रशिक्षण कार्यक्रमों में निवेश सिकुड़ते श्रम बल को कुशलतापूर्वक प्रबंधित करने की कुंजी होगी। यह दृष्टिकोण कम युवा श्रमिकों के प्रभाव को कम करते हुए उत्पादकता को बनाए रख सकता है।
- परिवारों को प्रोत्साहित करें: स्वास्थ्य सेवा, शिक्षा और रोजगार के अवसरों पर ध्यान केंद्रित करें – उच्च जन्म दर को प्रोत्साहित करने में अधिक प्रभावी हो सकता है।
- संतुलित विकास: क्षेत्रीय असमानताओं को कम करने के लिए, उत्तरी और दक्षिणी दोनों राज्यों में आर्थिक तथा सामाजिक विकास पर समान बल देना महत्वपूर्ण है। यह स्थायी आंतरिक प्रवास सुनिश्चित कर सकता है और क्षेत्रों में सामाजिक-आर्थिक असंतुलन को कम कर सकता है।
Source: IE
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संक्षिप्त समाचार 21-10-2024
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