दिल्ली उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के विरुद्ध न्यायपालिका की आंतरिक जाँच

पाठ्यक्रम: GS2/न्यायपालिका

संदर्भ

  • हाल ही में, भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) ने दिल्ली उच्च न्यायालय के न्यायाधीश यशवंत वर्मा के आचरण की अभूतपूर्व तीन सदस्यीय आंतरिक जाँच शुरू की।

आंतरिक जाँच के बारे में

  • उत्पत्ति और विकास: 
    • बंबई उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश ए. एम भट्टाचार्य के विरुद्ध वित्तीय अनियमितता के आरोपों के बाद 1995 में आंतरिक जाँच तंत्र की आवश्यकता उत्पन्न हुई।
    • सर्वोच्च न्यायालय द्वारा 1997 में पूर्व सर्वोच्च न्यायालय न्यायाधीश न्यायमूर्ति वी. रामास्वामी के विरुद्ध आरोपों से संबंधित एक मामले के बाद आन्तरिक प्रक्रिया तैयार की गई थी।
    • 2014 में यौन उत्पीड़न की शिकायत के बाद सात-चरणीय जाँच ढांचे की स्थापना के बाद इस प्रक्रिया को परिष्कृत किया गया

आन्तरिक  जाँच की मुख्य विशेषताएँ

  • महाभियोग से भिन्न: महाभियोग के विपरीत, जिसके लिए संविधान के अनुच्छेद 124(4) के तहत संसदीय अनुमोदन की आवश्यकता होती है, आंतरिक जाँच एक आंतरिक तंत्र है जिसका उद्देश्य न्यायिक मूल्यों के साथ असंगत आचरण को संबोधित करना है।
  • जाँच समितियों का गठन: निष्पक्षता सुनिश्चित करने के लिए समितियों में सामान्यतः विभिन्न उच्च न्यायालयों के वरिष्ठ न्यायाधीश शामिल होते हैं।
    • वर्तमान मामले के लिए तीन सदस्यीय समिति में पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश, हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश और कर्नाटक उच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश शामिल हैं।
  • पारदर्शिता: हाल की जाँचों ने पारदर्शिता के प्रति प्रतिबद्धता प्रदर्शित की है, तथा रिपोर्ट और साक्ष्य सार्वजनिक रूप से सुलभ बनाये गये हैं।

आंतरिक जाँच की प्रक्रिया

  • प्रारंभिक जाँच: न्यायाधीशों के विरुद्ध शिकायतों की जाँच सर्वप्रथम सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के मामले में भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) द्वारा, अथवा उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के मामले में संबंधित उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश द्वारा की जाती है।
  • समिति का गठन: यदि प्रथम दृष्टया मामला स्थापित होता है, तो आरोपों की जाँच के लिए तीन न्यायाधीशों की समिति गठित की जाती है।
  • जाँच कार्यवाही: समिति साक्ष्य की जाँच करती है, आरोपी न्यायाधीश से प्रश्न करती है, तथा यह निर्धारित करती है कि आरोपों में दम है या नहीं।
  • रिपोर्ट प्रस्तुत करना: समिति अपने निष्कर्ष मुख्य न्यायाधीश को प्रस्तुत करती है, जो आगे की कार्रवाई के बारे में निर्णय लेते हैं।

संभावित परिणाम

  • यदि न्यायाधीश को कदाचार का दोषी पाया जाता है, तो संसदीय महाभियोग के माध्यम से उसे हटाने पर विचार करने के लिए रिपोर्ट भारत के राष्ट्रपति को भेजी जाती है।
  • यदि कदाचार मामूली है, तो न्यायाधीश को स्वेच्छा से त्यागपत्र देने की सलाह दी जा सकती है।
  • यदि आरोप निराधार हों तो मामला समाप्त कर दिया जाता है।

आंतरिक जाँच प्रक्रिया में चुनौतियाँ

  • पारदर्शिता का अभाव: जाँच बंद दरवाजों के पीछे की जाती है और रिपोर्ट सार्वजनिक नहीं की जाती। इससे जवाबदेही को लेकर चिंताएँ उत्पन्न होती हैं।
  • कोई बाध्यकारी प्राधिकार नहीं: भले ही कदाचार सिद्ध हो जाए, न्यायपालिका प्रत्यक्षतः किसी न्यायाधीश को नहीं हटा सकती; संसद द्वारा महाभियोग की आवश्यकता है।
  • दुर्लभ महाभियोग: जटिल महाभियोग प्रक्रिया न्यायाधीशों को हटाना लगभग असंभव बना देती है, जैसा कि न्यायमूर्ति रामास्वामी (1991) और न्यायमूर्ति एस. एन. शुक्ला (2022) के मामलों में देखा गया है।
  • राजनीतिक प्रभाव: महाभियोग प्रक्रिया राजनीतिक कारणों से प्रभावित हो सकती है, जिससे इसकी प्रभावशीलता कम हो जाती है।
  • विलंबित न्याय: जाँच में प्रायः वर्षों लग जाते हैं, जिससे न्यायिक जवाबदेही में जनता का विश्वास कम हो जाता है।

भारत में न्यायिक जाँच के उल्लेखनीय मामले

  • न्यायमूर्ति वी. रामास्वामी मामला (1991): महाभियोग की कार्यवाही का सामना करने वाले पहले न्यायाधीश, लेकिन राजनीतिक चालबाज़ी के कारण संसद उन्हें हटाने में विफल रही।
  • न्यायमूर्ति सौमित्र सेन मामला (2011): आंतरिक जाँच में वित्तीय कदाचार का दोषी पाया गया; राज्यसभा ने महाभियोग प्रस्ताव पारित कर दिया, लेकिन लोकसभा में मतदान से पहले ही उन्होंने इस्तीफा दे दिया।
  • जस्टिस एस. एन. शुक्ला केस (2022): निजी मेडिकल कॉलेजों को लाभ पहुँचाने का आरोप; आंतरिक जाँच में उन्हें दोषी पाया गया, लेकिन महाभियोग नहीं लगाया गया।

सुधार के लिए सिफारिशें

  • जाँच रिपोर्ट सार्वजनिक करें: पारदर्शिता बढ़ाने से जनता का विश्वास बढ़ेगा।
  • न्यायिक निगरानी निकायों को मजबूत बनाना: न्यायिक मानक एवं जवाबदेही आयोग की स्थापना न्यायपालिका में पारदर्शिता और जवाबदेही सुनिश्चित करने की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम होगा।
  • वैकल्पिक अनुशासनात्मक तंत्र लागू करना: केवल महाभियोग पर निर्भर रहने के बजाय, निलंबन या जुर्माना जैसी अन्य अनुशासनात्मक कार्रवाइयों पर विचार किया जाना चाहिए।
  • समयबद्ध कार्यवाही सुनिश्चित करना: न्यायिक कदाचार को दण्डित होने से बचाने के लिए जाँच में देरी को न्यूनतम किया जाना चाहिए।

Source: IE