कृषि में एकसमान कराधान: अवसर एवं चुनौतियाँ

पाठ्यक्रम: GS3/कृषि

सन्दर्भ

  • भारत का कृषि क्षेत्र इसकी अर्थव्यवस्था की आधारशिला है, जो सकल घरेलू उत्पाद(GDP), रोजगार एवं आजीविका में महत्त्वपूर्ण योगदान देता है। हालाँकि, अकुशलताएँ, मूल्य में उतार-चढ़ाव और नीतिगत असंगतियाँ इस क्षेत्र को प्रभावित करती हैं।
    • इन मुद्दों के समाधान के रूप में कृषि के लिए एक समान कराधान प्रणाली प्रस्तावित की गई है, लेकिन इसमें अवसर एवं चुनौतियाँ दोनों हैं।
  • पूर्व-औपनिवेशिक काल :
    • भारत की अर्थव्यवस्था मुख्य रूप से कृषि प्रधान थी, जिसमें स्थानीय शासक आय के प्राथमिक स्रोत के रूप में भूमि राजस्व एकत्र करते थे।
  • राजस्व प्रणालियाँ प्रायः स्थानीय रीति-रिवाजों एवं प्रथाओं पर आधारित होती थीं, जिसमें बटाईदारी और अन्य व्यवस्थाएँ होती थीं।
  • कर की दरें एवं प्रणालियाँ क्षेत्रीय रूप से भिन्न होती थीं, जो प्रायः स्थानीय शासक की नीतियों पर निर्भर करती थीं।
  • औपनिवेशिक काल:
    • ब्रिटिश शासन के दौरान शोषणकारी राजस्व प्रणाली के अंतर्गत कृषि पर व्यापक कर लगाया गया।
      • स्थायी बंदोबस्त (1793): बंगाल में अंग्रेजों द्वारा प्रारंभ की गई इस व्यवस्था में जमींदारों को प्रायः तय दरों पर कर एकत्रित करने का कार्य सौंपा जाता था। इस व्यवस्था के कारण किसानों का शोषण हुआ और ग्रामीण क्षेत्रों में व्यापक संकट उत्पन्न हुआ।
      • रैयतवारी प्रणाली: दक्षिणी और पश्चिमी भारत में प्रारंभ की गई इस व्यवस्था के तहत किसान (रैयत) प्रत्यक्ष तौर पर अंग्रेजों को कर देते थे।, जो प्रायः उनकी भूमि की अनुमानित उत्पादकता पर आधारित होता था।
      • महालवारी प्रणाली: उत्तरी भारत में, कर पूरे गाँवों (महालों) से एकत्र किया जाता था, जो सामूहिक रूप से राजस्व का भुगतान करने के लिए उत्तरदायी थे।
    • किसानों पर प्रभाव: अत्यधिक कर दरें प्रायः उपज के 50% से अधिक हो जाती हैं।
      • बार-बार फसल खराब होने एवं करों का भुगतान करने में असमर्थता के कारण ऋणग्रस्तता और भूमि की हानि हुई।
      • इन प्रणालियों ने कृषि विकास की तुलना में राजस्व निष्कर्षण को प्राथमिकता दी, जिससे ग्रामीण जनसंख्या गरीब एवं कमजोर हो गई।
  • स्वतंत्रता के पश्चात् का काल:
    • औपनिवेशिक शासन के ऐतिहासिक अन्याय को दूर करने के लिए, भारत सरकार ने आयकर अधिनियम, 1961 की धारा 10(1) के अंतर्गत कृषि आय को कराधान से छूट दी।
    • इस कदम का उद्देश्य किसानों को वित्तीय भार से राहत देना तथा कृषि विकास को प्रोत्साहित करना था।
    • कृषि आय को केंद्रीय कर से छूट दी गई थी, परन्तु राज्यों को कृषि आय पर कर लगाने का अधिकार दिया गया था। हालाँकि, अधिकांश राज्यों ने ऐसे कर नहीं लगाने का विकल्प चुना या उन्हें बागानी फसलों जैसी विशिष्ट गतिविधियों तक ही सीमित रखा।
    • हरित क्रांति (1960 का दशक): जबकि कराधान बहुत सीमा तक अनुपस्थित था, कृषि उत्पादकता को बढ़ावा देने एवं खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए सब्सिडी और न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSPs) प्रारंभ किए गए थे।
  • समकालीन चुनौतियाँ:
    • कराधान में चुनौतियाँ: कृषि आय कर छूट का दुरुपयोग कर चोरी के लिए किया गया है, जिसमें गैर-कृषि संस्थाएँ आय को कृषि से प्राप्त आय के रूप में छिपाती हैं।
      • राज्य स्तरीय कृषि कर, जहाँ लागू किए गए हैं, विखंडित एवं असंगत बने हुए हैं।
    • नीतिगत चर्चा: एक निश्चित सीमा से अधिक कृषि आय पर कर लगाने के प्रस्ताव को किसानों की परेशानी एवं राजनीतिक विरोध के कारण प्रतिरोध का सामना करना पड़ा है।
भारत में कृषि
– यह मुख्य रूप से भारतीय संविधान की अनुसूची VII में राज्य का विषय है। इसमें कृषि शिक्षा एवं अनुसंधान, कीटों से सुरक्षा और पौधों की बीमारियों की रोकथाम सम्मिलित है।
1. इसका तात्पर्य है कि सामान्य परिस्थितियों में कृषि से संबंधित मामलों पर कानून बनाने का विशेष अधिकार राज्य विधानसभाओं के पास है।
2. व्यापार एवं वाणिज्य जैसे कुछ पहलू समवर्ती सूची के अंतर्गत आते हैं।
निर्देशक सिद्धांत: संविधान के अनुच्छेद 48 में राज्य को कृषि एवं पशुपालन को आधुनिक और वैज्ञानिक तरीके से संगठित करने का निर्देश दिया गया है, जिससे इस क्षेत्र को समर्थन देने के लिए सरकार की प्रतिबद्धता को बल मिलता है।
कुछ तथ्य
GDP योगदान: 18.2% (2023-24)
रोज़गार: भारत के लगभग 45% कार्यबल को कृषि क्षेत्र में रोज़गार मिलता है।
आजीविका: भारत की लगभग 42.3% जनसंख्या अपनी आजीविका के लिए कृषि पर निर्भर है।

एकसमान कराधान के पक्ष में तर्क

  • समानता और निष्पक्षता: समर्थकों का तर्क है कि एक समान कराधान से वर्तमान प्रणाली में व्याप्त असमानताओं का समाधान हो जाएगा, जहां गैर-कृषि आय पर कर लगाया जाता है, जबकि कृषि आय पर नहीं।
    • इस असमानता के कारण कर से बचने एवं कर चोरी को बढ़ावा मिला है, तथा कुछ व्यक्ति कर छूट का लाभ लेने के लिए गैर-कृषि आय को कृषि आय के रूप में प्रदर्शित करते हैं।
  • राजस्व सृजन: एकसमान कराधान राज्य एवं केंद्र दोनों सरकारों के लिए राजस्व का एक महत्त्वपूर्ण स्रोत प्रदान कर सकता है।
    • इसे बुनियादी ढाँचे, अनुसंधान एवं सहायक सेवाओं में सुधार के लिए कृषि क्षेत्र में पुनर्निवेशित किया जा सकता है।
  • डेटा संग्रह और शासन: एक समान कर प्रणाली को लागू करने के लिए बेहतर डेटा संग्रह एवं रिकॉर्ड रखने की आवश्यकता होगी, जिससे बेहतर शासन और नीति-निर्माण हो सकेगा।
    • कृषि आय पर सटीक डेटा लक्षित सब्सिडी एवं सहायता कार्यक्रमों को डिजाइन करने में सहायता करेगा।
  • कर अपवंचन पर अंकुश लगाना: ऐसी चिंताएं हैं कि कुछ गैर-कृषि संस्थाएं गैर-कृषि आय को कृषि आय के रूप में घोषित करके कर अपवंचन के लिए छूट का दुरुपयोग करती हैं।
  • बाजार की दक्षता में वृद्धि: एकसमान कराधान बाधाओं को दूर करके और मूल्य असमानताओं को कम करके सहज अंतरराज्यीय व्यापार की सुविधा प्रदान करेगा। इससे अधिक कुशल बाजार बनेंगे, जहाँ आपूर्ति एवं माँग को अधिक प्रभावी ढंग से संतुलित किया जा सकेगा।
  • मूल्य में उतार-चढ़ाव को कम करना: एक समान कर प्रणाली के साथ, कृषि मूल्यों में उतार-चढ़ाव को कम किया जा सकता है। इससे किसानों को अधिक स्थिर आय एवं उपभोक्ताओं को अधिक पूर्वानुमानित मूल्य मिलेंगे।
  • उद्यमिता को प्रोत्साहन: एकसमान कराधान से प्रतिस्पर्धात्मक वातावरण को बढ़ावा मिलेगा, कृषि क्षेत्र में नवाचार एवं निवेश को बढ़ावा मिलेगा।
    • इससे उत्पादकता में वृद्धि हो सकती है और मूल्यवर्धित कृषि उत्पादों का विकास हो सकता है।

चुनौतियाँ और चिंताएँ

  • किसानों पर भार: आलोचकों का तर्क है कि कृषि आय पर कर लगाने से किसानों पर अतिरिक्त वित्तीय भार पड़ सकता है, जिनमें से कई पहले से ही कम आय और उच्च इनपुट लागत का सामना कर रहे हैं।
    • इससे ग्रामीण संकट बढ़ सकता है और किसानों की आत्महत्याओं में वृद्धि हो सकती है।
  • राज्य राजस्व संबंधी चिंताएँ: राज्य राजस्व के लिए स्थानीय करों पर निर्भर रहते हैं। एक समान कर प्रणाली में परिवर्तन से राजस्व हानि हो सकती है, जिससे राज्य इस परिवर्तन को अपनाने में संकोच करेंगे।
  • कार्यान्वयन संबंधी मुद्दे: विभिन्न राज्यों में कृषि गतिविधियों की विविध प्रकृति के कारण एक समान कराधान को लागू करना चुनौतीपूर्ण हो जाता है।
    • कृषि उत्पादकता और आय के विभिन्न स्तरों वाले राज्य, सभी के लिए एक समान दृष्टिकोण अपनाने का विरोध कर सकते हैं।
  • राजनीतिक एवं हितधारक प्रतिरोध: समान कराधान के प्रस्ताव को राजनीतिक प्रतिरोध का सामना करना पड़ सकता है, विशेष रूप से राज्यों की ओर से, जो इसे अपनी राजकोषीय स्वायत्तता पर अतिक्रमण मानते हैं।
    • भारत के संघीय ढांचे में ऐसे सुधारों को लागू करने के लिए सावधानीपूर्वक बातचीत और सामान्य सहमति बनाने की आवश्यकता है।
    • वर्तमान प्रणाली से स्थानीय व्यापारियों और मध्यस्थों सहित विभिन्न हितधारकों को लाभ मिलता है।
  • बुनियादी ढाँचा और प्रौद्योगिकी: एक समान कर प्रणाली को लागू करने के लिए मजबूत बुनियादी ढाँचे और प्रौद्योगिकी की आवश्यकता होती है ताकि राज्यों में निर्बाध एकीकरण एवं अनुपालन सुनिश्चित किया जा सके। यह एक महत्त्वपूर्ण तार्किक चुनौती हो सकती है।
  • प्रारंभिक कार्यान्वयन लागत: एक समान कर प्रणाली स्थापित करने की प्रारंभिक लागत, जिसमें प्रौद्योगिकी, प्रशिक्षण और प्रशासनिक परिवर्तन शामिल हैं, बहुत अधिक हो सकती है

हाल की चर्चाएँ और प्रस्ताव

  • नीति आयोग: इसने सुझाव दिया कि कर अपवंचन को रोकने एवं  राजस्व बढ़ाने के लिए एक निश्चित सीमा से ऊपर की कृषि आय पर कर लगाया जाना चाहिए।
  • प्रशासनिक उद्देश्यों के लिए मामूली शुल्क, जैसे कि वास्तविक समय के डेटा को एकत्रित करना, लाभदायक हो सकता है। यह ‘एक राष्ट्र, एक कर’ सिद्धांत के अनुरूप है, जो शासन में सुधार कर सकता है, खाद्य मुद्रास्फीति को कम कर सकता है और मूल्य में उतार-चढ़ाव को स्थिर कर सकता है।

निष्कर्ष

  • भारत में कृषि क्षेत्र में एकसमान कराधान से अवसर एवं  चुनौतियाँ दोनों ही सामने आती हैं।
  • हालाँकि इससे समानता को बढ़ावा मिलता है, राजस्व उत्पन्न होता है और शासन में सुधार होता है, लेकिन इससे किसानों पर भार पड़ने का जोखिम भी रहता है और कार्यान्वयन में भी अत्यधिक बाधाएँ आती हैं।
  • इस क्षेत्र में किसी भी सफल सुधार के लिए विभिन्न राज्यों की विशिष्ट आवश्यकताओं और स्थितियों पर विचार करते हुए एक संतुलित दृष्टिकोण आवश्यक है।
दैनिक मुख्य परीक्षा अभ्यास प्रश्न
[प्रश्न] भारत में कृषि क्षेत्र पर एक समान कराधान के कार्यान्वयन के पक्ष और विपक्ष में तर्कों पर चर्चा कीजिए। ऐसे नीतिगत परिवर्तन के संभावित आर्थिक, सामाजिक एवं राजनीतिक प्रभावों का विश्लेषण कीजिए।

Source: IE